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शिक्षे॑यमस्मै॒ दित्से॑यं॒ शची॑पते मनी॒षिणे॑ । यद॒हं गोप॑ति॒: स्याम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śikṣeyam asmai ditseyaṁ śacīpate manīṣiṇe | yad ahaṁ gopatiḥ syām ||

पद पाठ

शिक्षे॑यम् । अ॒स्मै॒ । दित्से॑यम् । शची॑ऽपते । म॒नी॒षिणे॑ । यत् । अ॒हम् । गोऽप॑तिः । स्या॒म् ॥ ८.१४.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

इससे मनुष्य की आशा दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीपते) हे यज्ञादिकर्मों तथा विज्ञानों का स्वामिन् ईश ! मेरी इच्छा सदा ऐसी होती रहती है कि (अस्मै) सुप्रसिद्ध-२ (मनीषिणे) मननशील परमशास्त्रतत्त्वविद् पुरुषों को (शिक्षेयम्) बहुत धन दूँ (दित्सेयम्) सदा ही मैं देता रहूँ (यद्) यदि (अहम्) मैं (गोपतिः+स्याम्) ज्ञानों को तथा गो प्रभृति पशुओं का स्वामी होऊँ। मेरी इस इच्छा को पूर्ण कर ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे भगवन् ! मुझको धनवान् और दाता बना, जिससे दरिद्रों और विद्वानों को मैं वित्त दूँ, इस मेरी इच्छा को पूर्ण कर ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीपते) हे शक्तिस्वामिन् योद्धा ! (यत्, अहम्) यदि मैं (गोपतिः, स्याम्) इन्द्रियों का स्वामी हो जाऊँ तो (अस्मै) इस (मनीषिणे) विद्वान् के लिये (दित्सेयम्) इष्ट पदार्थ देने की इच्छा करूँ और (शिक्षेयम्) दान भी करूँ। “शिक्ष धातु दानार्थक” है ॥२॥
भावार्थभाषाः - प्रजापालक को उचित है कि वह अपनी इन्द्रियों को स्वाधीन करने का प्रयत्न पहिले ही से करे, जो इन्द्रियों की गति के अनुसार सर्वदा चलता है, उसका अधःपात शीघ्र ही होता है, फिर साम्राज्य प्राप्त करने के अनन्तर अपने राष्ट्रिय विद्वानों का अन्न-धनादि अपेक्षित द्रव्यों से सर्वदा सत्कार करता रहे, क्योंकि जिस देश में विद्वानों की पूजा होती है, उस देश की शक्तियें सदा बढ़कर अपने स्वामी को उन्नत करती हैं अर्थात् जिस राजा के राज्य में गुणी पुरुषों का सत्कार होता है, वह राज्य सदैव उन्नति को प्राप्त होता है ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

अनेन मनुष्याशा दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे शचीपते=शचीनां यज्ञादिकर्मणां विज्ञानानाञ्च स्वामिन् ! ईश ! अहम्। अस्मै मनीषिणे=मननशीलाय परमशास्त्रतत्त्वविदे। शिक्षेयम्=बहूनि धनानि दातुमिच्छेयम्। दित्सेयम्=सदा दातुमिच्छेयम्। सर्वस्मै परमविदुषे धनानि दातुमिच्छामीत्यर्थः। यद्=यदि। तवानुग्रहेणाहम्। गोपतिः स्याम्=गवां ज्ञानानां गोप्रभृतिपशूनाञ्च स्वामी स्याम्। ईदृशीमिच्छां मे प्रपूरय ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीपते) हे शक्तिमन् ! (यत्, अहम्) यद्यहम् (गोपतिः, स्याम्) वशीकृतेन्द्रियः स्याम् तदा (अस्मै, मनीषिणे) अस्मै विदुषे (दित्सेयम्) दातुमिच्छेयम् (शिक्षेयम्) दद्यां च। शिक्षतिर्दानकर्मा ॥२॥