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अ॒पां फेने॑न॒ नमु॑चे॒: शिर॑ इ॒न्द्रोद॑वर्तयः । विश्वा॒ यदज॑य॒: स्पृध॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apām phenena namuceḥ śira indrod avartayaḥ | viśvā yad ajayaḥ spṛdhaḥ ||

पद पाठ

अ॒पाम् । फेने॑न । नमु॑चेः । शिरः॑ । इ॒न्द्र॒ । उत् । अ॒व॒र्त॒य्चः । विश्वाः॑ । यत् । अज॑यः । स्पृधः॑ ॥ ८.१४.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:13 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

वह विघ्न हनन करता है, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमदेव ! आप (नमुचेः) अवर्षणरूप अनिष्ट और विघ्न का (शिरः) शिर (अपाम्+फेनेन) जल के फेन से अर्थात् जल के सेक से (उदवर्त्तयः) काट लेते हैं। (यद्) जब (विश्वाः) सर्व (स्पृधः) बाधाओं को (अजयः) जीतते हैं। हे इन्द्र ! जब आप जलवर्षण से स्थावर और जङ्गम जीवों को सन्तुष्ट करते हैं, तब ही संसार की सर्व बाधाएँ निवारित होती हैं। ऐसे तुमको मैं भजता हूँ ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जल का भी कारण परमात्मा ही है, ऐसा जानना चाहिये ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे योद्धा ! आप (नमुचेः) स्वमार्गादिरोधक शत्रु के (शिरः) शिर को (अपाम्, फेनेन) जल के वाष्पादि द्वारा निर्मित वरुणास्त्र से (उदवर्तयः) उड़ा देते हैं (यदा) जब (विश्वाः, स्पृधः) सकल स्पर्धा रखनेवाले प्रतिपक्षियों को (अजयः) जीतने में प्रवृत्त होते हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जब वह सम्राट् गूढ धनुर्विद्या का आविष्कार करता है, तब ऐसी शक्ति उत्पन्न कर लेता है कि वाष्प द्वारा निर्मित शस्त्रों से संग्राम में आये हुए बड़े-२ शत्रुओं को सहज ही में वशीभूत कर सकता है अर्थात् विद्वान् राजा अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण द्वारा प्रबल शत्रुओं को भी सहज ही में विजय कर लेता है, अतएव राष्ट्रपति धनुर्विद्या के जानने में सदा यत्न करता रहे ॥१३॥
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शिव शंकर शर्मा

स विघ्नं हन्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वम्। नमुचेः=अवर्षणरूपस्य अनिष्टस्य। “न मुञ्चति न त्यजतीति नमुचिर्विघ्नोऽनिष्टम्” शिरः=मूर्धानम्। अपाम्=जलस्य। फेनेन=जलसेकेन। उदवर्त्तयः=उद्वर्त्तयसि=छिनत्सि। यद्=यदा। विश्वाः=सर्वाः। स्पृधः=स्पर्धमाना बाधाः। अजयः=जयसि। हे इन्द्र ! यदा त्वं जलवर्षणेन स्थावरान् जङ्गमांश्च जीवान् सन्तोषयसि। तदैव संसारस्य सर्वा बाधा निवारिता भवन्ति। ईदृशं त्वामहं भजे ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे योद्धः ! (नमुचेः) अमोक्तुः शत्रोः (शिरः) उत्तमाङ्गम् (अपां, फेनेन) वारुणास्त्रेण जलवाष्पमयेन (उदवर्तयः) उद्गमयसि (यत्) यदा (विश्वाः, स्पृधः) सर्वान् स्पर्धकान् (अजयः) जयसि ॥१३॥