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स्तो॒ता यत्ते॒ विच॑र्षणिरतिप्रश॒र्धय॒द्गिर॑: । व॒या इ॒वानु॑ रोहते जु॒षन्त॒ यत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stotā yat te vicarṣaṇir atipraśardhayad giraḥ | vayā ivānu rohate juṣanta yat ||

पद पाठ

स्तो॒ता । यत् । ते॒ । विऽच॑र्षणिः । अ॒ति॒ऽप्र॒श॒र्धय॑त् । गिरः॑ । व॒याःऽइ॑व । अनु॑ । रो॒ह॒ते॒ । जु॒षन्त॑ । यत् ॥ ८.१३.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

कैसी वाणी प्रयोक्तव्य है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (यत्) जब (ते) तेरा (विचर्षणिः) गुणद्रष्टा गुणग्राहक (स्तोता) स्तुतिपाठक विद्वान् (गिरः) अपने वचनों को (अतिप्रशर्धयत्) अतिशय विघ्नविनाशक बनाता है अर्थात् अपनी वाणी से जगत् को वशीभूत कर लेता है और (यत्) जब वे वाणियाँ (जुषन्त) गुरुजनों को प्रसन्न करती हैं, तब वे (वयाः+इव) वृक्ष की शाखा के समान (अनुरोहते) सदा बढ़ती जाती हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - वाणी सत्य और प्रिय प्रयोक्तव्य है ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (ते) आपका (स्तोता) स्तुति करनेवाला उपासक (विचर्षणिः) विद्वान् (गिरः) आपकी वाणियों को (अति प्रशर्धयत्) अतिशय इतस्ततः फैलाता है (यत्, जुषन्त) और जब सब लोग आपमें प्रीति करते हैं, तब (अनुरोहते, वया इव) शाखाओं के समान पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न होकर बढ़ता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे प्रभो ! आपकी स्तुति करनेवाले उपासक विद्वान् पुरुष वेदवाणियों द्वारा आपके महत्त्व को इतस्ततः विस्तार करते हैं, तब सब प्रजाजन आप में प्रीति करते अर्थात् आपकी आज्ञापालन करने में प्रवृत्त होते हैं और वह उपासक पुत्रपौत्रादि धनों से सम्पन्न होकर सदा सुख का अनुभव करते हैं, अतएव उचित है कि विद्वान् पुरुष परमात्मा की वाणीरूप वेद का प्रचार करते हुए ऐश्वर्य्यसम्पन्न हों ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

वाणी कीदृशी प्रयोक्तव्येति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यद्=यदा। ते=तव सम्बन्धी। विचर्षणि=विशेषेण तव गुणानां द्रष्टा। स्तोता=गुणपाठको विद्वान्। गिरः=वाणीः। अतिप्रशर्धयत्=अतिशयेन प्रशर्धयति विघ्नविनाशयित्रीरशुभप्रहर्त्रीः करोति। स्वकीयया वाण्या जगद् वशीकरोतीत्यर्थः। पुनः। यद्=यदा ता गिरः। जुषन्त=जुषन्ते गुरुजनान् प्रीणयन्ति तदा ताः। वया इव=वृक्षस्य शाखा इव। रोहते=रोहन्ते प्ररोहन्ति। छान्दसमेकवचनम् ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (ते) तव (स्तोता) उपासकः (विचर्षणिः) विद्वान् (गिरः) स्तुतीः (अति प्रशर्धयत्) अतिशयेन विस्तृणाति (यत्) यदा च (जुषन्त) अन्येऽपि त्वां सेवन्ते तदा (वया इव) शाखा इव (अनुरोहते) पुत्रपौत्रादिभिर्वर्धते ॥६॥