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वृषा॒ ग्रावा॒ वृषा॒ मदो॒ वृषा॒ सोमो॑ अ॒यं सु॒तः । वृषा॑ य॒ज्ञो यमिन्व॑सि॒ वृषा॒ हव॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣā grāvā vṛṣā mado vṛṣā somo ayaṁ sutaḥ | vṛṣā yajño yam invasi vṛṣā havaḥ ||

पद पाठ

वृषा॑ । ग्रावा॑ । वृषा॑ । मदः॑ । वृषा॑ । सोमः॑ । अ॒यम् । सु॒तः । वृषा॑ । य॒ज्ञः । यम् । इन्व॑सि । वृषा॑ । हवः॑ ॥ ८.१३.३२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:32 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:32


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - ईश्वरसृष्टि में छोटे से छोटा भी पदार्थ बहुगुणप्रद है, यह शिक्षा इससे दी जाती है। यथा−(ग्रावा) निःसार क्षुद्र प्रस्तर भी (वृषा) बहुफलप्रद है (मदः) मदकारी धत्तूर आदि पदार्थ भी वैद्यकशास्त्रानुसार प्रयुक्त होने पर (वृषा) कामप्रद है (अयम्+सुतः+सोमः) हम जीवों से निष्पादित यह सोम गुरूची आदि भी (वृषा) कामवर्षिता है। (यम्+ईन्वसि) जिस यज्ञ में तू जाता है, वह (यज्ञः+वृषा) यज्ञ कामवर्षिता है। (हवः+वृषा) तेरा आवाहन भी वृषा है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! उसी ईश की सङ्गति करो, उसका सङ्ग आनन्दप्रद है ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (वृषा, ग्रावा) आपके पर्वतादि सब कामनाओं के वर्षिता हैं (मदः, वृषा) आपका आह्लाद कामवर्षुक है (अयम्, सुतः, सोमः) यह निष्पादित सोम भी वृषा है (यम्, इन्वसि) जिसको आप प्राप्त करते हैं (यज्ञः, वृषा) वह यज्ञ भी वृषा है इससे आपका (वृषा, हवः) आह्वान वृषा=कामनाओं का वर्षिता है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - हे कामप्रद परमेश्वर ! यह आपकी रचनारूप पर्वत, नदियाँ तथा पृथिवी आदि सब कामनाओं की वर्षा करनेवाले अर्थात् हमारी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। यह आपका रचित यज्ञ, जो ब्रह्माण्ड में नियमपूर्वक नित्य हो रहा है, वह वर्षा आदि द्वारा हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है। हे हमारे रक्षक प्रभो ! आप हमारी रक्षा करते हुए सब कामनाओं को पूर्ण करें ॥३२॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - ईश्वरसृष्टौ स्वल्पीयसां मध्ये स्वल्पीयानपि पदार्थः बहुगुणप्रदोऽस्तीत्यनया शिक्षते। यथा−हे इन्द्र ! तव सृष्टौ। ग्रावा=लघीयान् प्रस्तरोऽपि। वृषा=कामानां वर्षिता=सेक्ता। मदोऽपि=धत्तूरादिमदकारी पदार्थोऽपि। वृषा= चिकित्साशास्त्रानुसारेण प्रयुक्तो बहुफलप्रदः। अयम् प्रत्यक्षतया। सुतः=सम्पादितोऽस्माभिः। सोमः=सोमलतापि च। वृषा। हे इन्द्र ! यं यज्ञम् त्वमिन्वसि=यासि=प्राप्नोषि। स यज्ञोऽपि वृषा। तव हवोऽपि वृषा ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (वृषा, ग्रावा) तव पर्वतादिः कामानां वर्षिता (मदः, वृषा) तवाह्लादोऽपि वृषा (अयम्, सुतः, सोमः) अयं साधितः सोमोऽपि (वृषा) कामानां वर्षिता (यम्, इन्वसि) यं च त्वं प्राप्नोषि (यज्ञः, वृषा) स यज्ञोऽपि वृषा अतः (वृषा, हवः) तवाह्वानं वृषा ॥३२॥