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इ॒ह त्या स॑ध॒माद्या॑ युजा॒नः सोम॑पीतये । हरी॑ इन्द्र प्र॒तद्व॑सू अ॒भि स्व॑र ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iha tyā sadhamādyā yujānaḥ somapītaye | harī indra pratadvasū abhi svara ||

पद पाठ

इ॒ह । त्या । स॒ध॒ऽमाद्या॑ । यु॒जा॒नः । सोम॑ऽपीतये । हरी॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒तद्व॑सू॒ इर्ति॑ प्र॒तत्ऽव॑सू । अ॒भि । स्व॒र॒ ॥ ८.१३.२७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:27 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:27


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शिव शंकर शर्मा

इससे इन्द्र की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) इन्द्र ! तू (त्या) परम प्रसिद्ध उन (सधमाद्या) तेरे ही साथ आनन्दयितव्य या आनन्दयिता (प्रतद्वसू) बहुधनसम्पन्न सर्वसुखमय (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गमरूप द्विविध संसारों को (युजानः) स्व-स्व कार्य में नियोजित करता हुआ (इह) इस मेरे गृह में (सोमपीतये) निखिल पदार्थों के ऊपर अनुग्रहार्थ (अभिस्वर) हम लोगों के अभिमुख आ ॥२७॥
भावार्थभाषाः - हे ईश ! इन पदार्थों को स्व-२ कार्य में लगा और हम लोगों के ऊपर कृपा कर ॥२७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वा) वह (सधमाद्या) यज्ञ में होनेवाली (प्रतद्वसू) रत्नों को बढ़ानेवाली (हरी) असद्गुणनिवारक और सद्गुणोपधायक शक्तियों को (युजानः) शरीर के साथ जोड़ते हुए (सोमपीतये) सौम्य अन्तःकरण का अनुभव करने के लिये (इह) इस यज्ञ में (अभिस्वर) आप आएँ ॥२७॥
भावार्थभाषाः - हे परमदेव परमेश्वर ! आप हमारे यज्ञ को अपनी परमकृपा से पूर्ण करें और हमें रत्नादि उत्तमोत्तम धनों का लाभ कराएँ, जिससे हम नित्यनूतन पदार्थों के आविष्काररूप यज्ञ करते रहें, जो सब प्रजाजनों की उन्नति करनेवाले हों। हे हमारे रक्षक देव ! अपनी असद्गुणनिवारक और सद्गुणों की धारक शक्तियों को हममें प्रवेश करें, ताकि हम सद्गुणसम्पन्न होकर अपने आपको उन्नत करने में समर्थ हों ॥२७॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रप्रार्थनां करोति ।

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्र ! त्वम्। त्या=त्यौ=तौ। सधमाद्या=त्वयैव सह, मादयितव्यौ मादयितारौ वा। प्रतद्वसू=प्राप्त।धनौ, प्रकर्षेण विस्तीर्णधनौ, वासयितारौ वा। हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमात्मकौ द्विविधौ संसारौ। युजानः=स्वस्वकार्य्ये युज्जानो नियोजन् सन्। इह=अस्मद्गृहे। सोमपीतये=सोमानां निखिलपदार्थानां पीतये=अनुग्रहाय। अभिस्वर=अस्माकमभिमुखो भव आगच्छ वा ॥२७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्या) ते (सधमाद्या) यज्ञोद्भवे (प्रतद्वसू) वसुप्रतनित्र्यौ (हरी) असद्गुणनिवारकसद्गुणाधायक शक्ती (युजानः) शरीरेण युञ्जन् (सोमपीतये) सौम्यान्तःकरणानुभवाय (इह) अस्मिन्यज्ञे (अभिस्वर) अभ्यागच्छ ॥२७॥