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इन्द्र॒ त्वम॑वि॒तेद॑सी॒त्था स्तु॑व॒तो अ॑द्रिवः । ऋ॒तादि॑यर्मि ते॒ धियं॑ मनो॒युज॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra tvam avited asītthā stuvato adrivaḥ | ṛtād iyarmi te dhiyam manoyujam ||

पद पाठ

इन्द्र॑ । त्वम् । अ॒वि॒ता । इत् । अ॒सि॒ । इ॒त्था । स्तु॒व॒तः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । ऋ॒तात् । इ॒य॒र्मि॒ । ते॒ । धिय॑म् । म॒नः॒ऽयुज॑म् ॥ ८.१३.२६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:26 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:26


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शिव शंकर शर्मा

इससे इन्द्र की स्तुति करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्रिवः) हे दण्डधारी (इन्द्र) सर्वद्रष्टा परमदेव ! (इत्था) इस प्रकार (स्तुवतः) यशोगान करनेवाले के (त्वम्) आप (अविता+इत्+असि) रक्षक ही होते हैं। इस हेतु हे भगवन् ! (ऋतात्) सत्यता के कारण (मनोयुजम्) समाधि में मन को स्थापित करनेवाली (धियम्) बुद्धि को (ते) आपसे (इयर्मि) माँगता हूँ। जिस कारण आप सदा हम लोगों की रक्षा ही करते आए हैं, अतः मुझको सुबुद्धि दीजिये, जिससे मेरी पूरी रक्षा होवे ॥२६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उसका रक्षक होता है, जो शुभकर्म करता है और जो उस परमगुरु में मन लगाता है ॥२६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्रिवः, इन्द्र) हे शत्रुविदारक परमात्मन् ! (इत्था, स्तुवतः) इस प्रकार स्तुति करनेवाले के (त्वम्) आप (अविता, इत्, असि) रक्षक ही होते हैं, अनन्तर हम लोग (ऋतात्) सत्य का आश्रयण करके (मनोयुजम्, ते, धियम्) ज्ञानयुक्त आपके कर्मों को (इयर्मि) प्राप्त करते हैं ॥२६॥
भावार्थभाषाः - हे शत्रुविदारक परमात्मन् ! जो पुरुष आपकी उपासना में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं, निश्चय आप उनके रक्षक होते हैं और सत्य का आश्रयण करनेवाले ज्ञानयुक्त होकर वैदिक कर्मों द्वारा आपको प्राप्त करते हैं। हे प्रभो ! हमें आत्मिक बल दें कि हम सत्य का पालन करते हुए आपकी उपासना में सदा तत्पर रहें, जिससे हमें सुख देनेवाली अपूर्व ज्ञान की प्राप्ति हो ॥२६॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रस्तुतिः क्रियते ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अद्रिवोऽद्रिमन्=दण्डधारिन् इन्द्र ! इत्था=इत्थमनेन प्रकारेण। स्तुवतः=स्तुतिं कुर्वतो जनस्य। त्वमविता इदसि=त्वं रक्षितैव भवसि। अतोऽहं हे इन्द्र। ऋतात्सत्याद्धेतोः। मनोयुजम्=मनश्चितं समाधौ युनक्ति या सा मनोयुक्ताम्। मनोयुजम्=समाधौ मनः स्थापनीयम्। धियम्=मेधाम्। ते=त्वाम्। इयर्मि=याचे। धातूनामनेकार्थत्वादियर्तिरिह याचनार्थः ॥२६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्रिवः, इन्द्र) हे शत्रुभयोत्पादक परमात्मन् ! (इत्था, स्तुवतः) इत्थं स्तुतिं कुर्वतः (त्वम्) त्वम् (अविता) रक्षकः (इत्, असि) एव भवसि वयम् (ऋतात्) सत्यमाश्रित्य “ल्यब्लोपे पञ्चमी” (मनोयुजम्, ते, धियम्) ज्ञानयुक्तम् ते कर्म (इयर्मि) प्राप्नोमि ॥२६॥