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इ॒मं जु॑षस्व गिर्वणः समु॒द्र इ॑व पिन्वते । इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑र्व॒वक्षि॑थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imaṁ juṣasva girvaṇaḥ samudra iva pinvate | indra viśvābhir ūtibhir vavakṣitha ||

पद पाठ

इ॒मम् । जु॒ष॒स्व॒ । गि॒र्व॒णः॒ । स॒मु॒द्रःऽइ॑व । पि॒न्व॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । व॒वक्षि॑थ ॥ ८.१२.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

स्तुतिस्वीकार के लिये प्रार्थना।

पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे वाणियों से स्तवनीय हे स्तुतिप्रिय (इन्द्र) हे परमदेव ! (इमम्) इस मेरे स्तोत्र को (जुषस्व) ग्रहण कर। जो मेरा स्तोत्र मेरे उद्देश से प्रयुक्त होने पर (समुद्रः+इव) समुद्र के समान (पिन्वते) बढ़ता है। तेरे अनन्त महिमा को प्राप्त करके वह भी तत्समान होता है। इस कारण समुद्र की वृद्धि से उपमा दी गई है। हे इन्द्र ! (येन) जिस मेरे स्तोत्र से स्तूयमान होने पर तू भी (विश्वाभिः) समस्त (ऊतिभिः) रक्षाओं से (ववक्षिथ) इस संसार में विविध सुख पहुँचाता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - प्रेम और सद्भाव से विरचित स्तोत्र वा प्रार्थना को भगवान् अवश्य सुनता है। ऐसे-२ मनुष्यों के शुभकर्म से जगत् का स्वतः कल्याण होता है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (गिर्वणः) वाणियों द्वारा भजनीय आप (इमम्) इस स्तोत्र को (जुषस्व) सेवन करें, जो स्तोत्र (समुद्र इव, पिन्वते) अन्तरिक्ष के समान बढ़ रहा है, जिससे (विश्वाभिः) सम्पूर्ण (ऊतिभिः) रक्षाओं से (ववक्षिथ) लोकों का धारण करते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वरक्षक परमात्मन् ! आप सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों के रक्षक तथा पालक हैं, हमारे इस स्तुतिप्रद स्तोत्र को श्रवण करते हुए हमारी सब ओर से रक्षा करें। हे पवित्र वाणियों से भजनीय परमेश्वर ! लोक-लोकान्तरों के धारण करनेवाले तथा उनको नियम में चलानेवाले आप ही हैं, कृपा करके हमारी रक्षा करते हुए हमें भी बल प्रदान करें, कि हम लोग वैदिक अनुष्ठानरूप नियम से कभी च्युत न हों ॥५॥
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शिव शंकर शर्मा

स्तोमस्वीकाराय प्रार्थना।

पदार्थान्वयभाषाः - हे गिर्वणः=गीर्भिर्मनुष्यवचनैः। वण। वननीय स्तवनीय स्तोत्रप्रिय। इन्द्र=परमदेव। इमम्=मम स्तोमम्। जुषस्व=सेवस्व गृहाण। यः स्तोमः। त्वयि प्रयुक्तः सन् समुद्र इव पिन्वते=वर्धते। तवानन्तं महिमानं प्राप्य सोऽपि तद्वद् भवति। हे इन्द्र ! येन स्तोमेन स्तूयमानः सन् त्वम्। अत्र पूर्वस्मान् मन्त्राद् येनेति पदमध्याह्रियते। विश्वाभिः=सर्वाभिः। ऊतिभिः=रक्षाभिः। ववक्षिथ=जीवान् प्रापयसि सुखमित्यर्थः ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (गिर्वणः) गीर्भिः संभजनीयस्त्वम् (इमम्) इमं स्तोत्रम् (जुषस्व) सेवस्व (समुद्र इव, पिन्वते) यत् स्तोत्रमन्तरिक्षमिव वर्धते (विश्वाभिः, ऊतिभिः) सर्वाभी रक्षाभिः (ववक्षिथ) लोकान् वहसि ॥५॥