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न यं वि॑वि॒क्तो रोद॑सी॒ नान्तरि॑क्षाणि व॒ज्रिण॑म् । अमा॒दिद॑स्य तित्विषे॒ समोज॑सः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na yaṁ vivikto rodasī nāntarikṣāṇi vajriṇam | amād id asya titviṣe sam ojasaḥ ||

पद पाठ

न । यम् । वि॒वि॒क्तः । रोद॑सी॒ इति॑ । न । अ॒न्तरि॑क्षाणि । व॒ज्रिण॑म् । अमा॑त् । इत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । सम् । ओज॑सः ॥ ८.१२.२४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:24 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:24


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शिव शंकर शर्मा

उसका महत्त्व दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (यम्) जिस (वज्रिणम्) दण्डधारी इन्द्र को (न+विविक्तः) अपने समीप से पृथक् नहीं कर सकता अथवा अपने में उसको समा नहीं सकता और (अन्तरिक्षाणि+न) मध्यस्थानीय आकाशस्थ लोक भी जिसको अपने समीप से पृथक् नहीं कर सकता, (अस्य) इस (ओजसः) महाबली इन्द्र के (अमात्+इत्) बल से ही यह सम्पूर्ण जगत् (सम्+तित्विषे) अच्छे प्रकार भासित हो रहा है ॥२४॥
भावार्थभाषाः - वह ईश्वर इस पृथिवी, द्युलोक और आकाश से भी बहुत बड़ा है, अतः वे इसको अपने में रख नहीं सकते। उसी के बल से ये सूर्यादि जगत् चल रहे हैं, अतः वही उपास्य है ॥२४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणम्) वज्रशक्तिवाले (यम्) जिस परमात्मा को (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (न, विविक्तः) पृथक् नहीं कर सकते (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थ प्रदेश भी (न ) पृथक् नहीं कर सकते (समोजसः) अत्यन्त पराक्रमवाले (अस्य) इस परमात्मा के (इत्) ही (अमात्) बल से (तित्विषे) यह जगत् दीप्त हो रहा है ॥२४॥
भावार्थभाषाः - वज्रशक्तिसम्पन्न परमात्मा, जो सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों के जीवों को प्राणनशक्ति देनेवाला है, उसको कोई भी पृथक् नहीं कर सकता, क्योंकि वही सबका जीवनाधार, वही प्राणों का प्राण, वही सबको वास देनेवाला और वही सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों को दीप्त करनेवाला है, उसकी आज्ञापालन करना ही अमृत की प्राप्ति और उससे विमुख होना ही मृत्यु है ॥२४॥
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शिव शंकर शर्मा

तस्य महत्त्वं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - यं वज्रिणम्=दण्डधारिणमिन्द्रम्। रोदसी=द्यावापृथिव्यौ। न विविक्तः=स्वसमीपात् पृथक् कर्त्तुं न शक्नुतः। तथा अन्तरिक्षाणि=आकाशा अपि। यं स्वसामीप्यात् पृथक् कर्त्तुं न शक्नुवन्ति। ओजसः=ओजस्विनो बलवतः। ‘अत्र विनो लुक्’। अस्य=इन्द्रस्य। अमात् इत्=बलादित्=बलादेव। सर्वं जगत्। सं तित्विषे=दीप्यते प्रकाशते ॥२४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वज्रिणम्) वज्रवन्तम् (यम्) यं परमात्मानम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (न) नहि (विविक्तः) पृथक्कर्तुं न शक्नुवन्ति (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षप्रदेशा अपि (न) न तथा (समोजसः) पराक्रमवतः (अस्य) अस्य परमात्मनः (अमात्, इत्) बलादेव (तित्विषे) इदं जगद्दीप्यते ॥२४॥