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यद॒द्याश्वि॑ना॒वपा॒ग्यत्प्राक्स्थो वा॑जिनीवसू । यद्द्रु॒ह्यव्यन॑वि तु॒र्वशे॒ यदौ॑ हु॒वे वा॒मथ॒ मा ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad adyāśvināv apāg yat prāk stho vājinīvasū | yad druhyavy anavi turvaśe yadau huve vām atha mā gatam ||

पद पाठ

यत् । अ॒द्य । अ॒श्वि॒नौ॒ । अपा॑क् । यत् । प्राक् । स्थः । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । यत् । द्रु॒ह्यवि॑ । अन॑वि । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । हु॒वे । वा॒म् । अथ॑ । मा॒ । आ । ग॒त॒म् ॥ ८.१०.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:10» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

पुनः राजकर्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विनौ) हे स्वगुणों से प्रजाओं के हृदयों में व्याप्त राजा और अमात्यादिवर्ग ! (अद्य) इस समय (यद्) यदि आप (अपाक्) पश्चिम दिशा में (स्थः) होवें (यद्) यदि वा (वाजिनीवसू) विज्ञानधनों (प्राक्) पूर्व दिशा में होवें (यद्) यद्वा (द्रुह्यवि) सोमादि पदार्थों से सत्कार करनेवाले के निकट हों, यदि वा (अनवि) प्राणप्रद (तुर्वशे) जितेन्द्रिय और (यदौ) सुखप्रापक पुरुष के निकट होवें। (वाम्) उन आपको (हुवे) मैं यहाँ बुलाता हूँ (अथ) इसके अनन्तर ही आप (मा) मेरे समीप (आगतम्) आवें ॥५॥
भावार्थभाषाः - प्रजाओं के कार्यनिरीक्षण के निमित्त राजा सर्वत्र जाया करें। किन्तु जहाँ अधिक आवश्यकता हो, वहाँ प्रथम जाना उचित है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनीवसू) हे सेनारूप धनवाले (अश्विनौ) व्यापक ! आप (यत्, अद्य) जो इस समय (अपाक्) पश्चिम दिशा में (यत्, प्राक्, स्थः) अथवा पूर्व में हों (यत्) अथवा (द्रुह्यवि) द्रोही के पास (अनवि) अस्तोता के पास (तुर्वशे) शीघ्रवशकारी के निकट (यदौ) साधारण के समीप हों (अथ, वाम्, हुवे) तो भी आपका आह्वान करता हूँ (मा, आगतम्) मेरे पास आइये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में याज्ञिक यजमान की ओर से कथन है कि हे पूर्ण बल=सेनाओं के अधिपति सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! मैं आपका आह्वान करता हूँ कि आप उपर्युक्त स्थानों में अथवा इनसे भिन्न स्थानों में कहीं भी हों, कृपा करके मेरे यज्ञ में आकर सहायक हों ॥५॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विनौ=स्वगुणैः प्रजानां हृदयेषु व्याप्तौ राजानौ ! अद्य=अस्मिन् समये। यद्=यदि। अपाक्=प्रतीच्यां दिशि। स्थः=वर्तेथे। यद्=यदि वा। हे वाजिनीवसू=ज्ञानधनौ ! प्राक्=प्राच्यां दिशि स्थः। यद्=यदि वा। द्रुह्यवि=द्रुह्यौ=द्रुतहोतरि=विज्ञानवति वा। अनवि=अनौ= प्राणप्रदे स्वव्यापारेण सर्वरक्षके वा। तुर्वशे=त्वरितवशे=जितेन्द्रिये वा। यदौ=सुखप्रापके पुरुषे। सन्निहितौ स्थः। एवं तत्र सन्निहितौ वाम्=युवाम्। अहं हुवे=आह्वयामि। अथानन्तरं युवाम्। मा=माम्। आगतम्=आगच्छतम् ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनीवसू) हे सेनाधनौ (अश्विनौ) व्यापकौ ! (यत्, अद्य) यद्यद्य (अपाक्) प्रतीच्याम् (यत्, प्राक्, स्थः) यद्वा प्राच्यां स्यातम् (यत्) यद्वा (द्रुह्यवि) द्रोग्धरि (अनवि) अस्तोतरि (तुर्वशे) शीघ्रवशे (यदौ) साधारणे वा स्यातम् (अथ, वाम्, हुवे) युवां ह्वयामः (मा, आगतम्) मामागच्छतम् ॥५॥