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आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् । उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yad aśvān vananvataḥ śraddhayāhaṁ rathe ruham | uta vāmasya vasunaś ciketati yo asti yādvaḥ paśuḥ ||

पद पाठ

आ । यत् । अश्वा॑न् । वन॑न्ऽवतः । श्र॒द्धया॑ । अ॒हम् । रथे॑ । रु॒हम् । उ॒त । वा॒मस्य॑ । वसु॑नः । चि॒के॒त॒ति॒ । यः । अस्ति॑ । याद्वः॑ । प॒शुः ॥ ८.१.३१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:31 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:31


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शिव शंकर शर्मा

इस ऋचा से पुनरपि मानो भगवान् भक्त को उपदेश देता है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मेध्यातिथे पवित्रजन ! (अश्वान्) चपल इन्द्रियों को वश करके (श्रद्धया) परम भक्ति से (वनन्वतः) मेरी आराधना करनेवाले भक्तजन के (रथे) पवित्र रमणीय हृदयरूप रथ पर (यत्) जब (अहम्) मैं (आ+रुहम्) चढ़ता हूँ, अर्थात् निवास करता हूँ। (उत) तब ही वह भक्त (वामस्य) प्रशस्त (धनस्य) धन को (चिकेतति) देखता है। कौन देखता है, सो आगे कहते हैं (यः) जो (याद्वः) मनुष्यों में स्थित (पशुः) द्रष्टा जीवात्मा (अस्ति) है। वह उस समय सर्व द्रष्टव्य वस्तु को देखता है ॥३१॥
भावार्थभाषाः - श्रद्धा से आराधित परमेश्वर अवश्य प्रसन्न होता है और उपासक के हृदयरूप रथ पर आरूढ़ होता है। तब यह द्रष्टा जीवात्मा सर्वश्रेष्ठ इष्ट धन को देख और पाकर अन्य धन की आकाङ्क्षा नहीं करता, यह इसका भाव है ॥३१॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी ईश्वर के ऐश्वर्य्य का वर्णन करता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदि (रथे) गतिशील प्रकृति में (वनन्वतः, अश्वान्) व्यापक शक्तिवाले पदार्थों को जानने के लिये (अहं) हम लोग (श्रद्धया) दृढ़ जिज्ञासा से (आ, रुहं) प्रवृत्त हों (उत) तो (यः) जो (याद्वः, पशुः) मनुष्यों में सूक्ष्मद्रष्टा कर्मयोगी (अस्ति) है, वह (वामस्य) सूक्ष्म=दुर्ज्ञेय (वसुनः) पदार्थों के तत्त्व को (चिकेतति) जान सकता है ॥३१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की सृष्टिरूप इस अनन्त ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म से सूक्ष्म दुर्विज्ञेय पदार्थ विद्यमान हैं, जिनको बड़े-बड़े पदार्थवेत्ता अपने ज्ञानद्वारा अनुभव करते हैं। इस मन्त्र में कर्मयोगी परमात्मा की प्रकृति को दुर्विज्ञेय कथन करता हुआ यह वर्णन करता है कि हम लोग उन पदार्थों को जानने के लिये दृढ़ जिज्ञासा से प्रवृत्त हों अर्थात् कर्मयोगी को उचित है कि वह अपने अभ्यास द्वारा उनके जानने का प्रयत्न करे, जो पुरुष सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों को जानकर उनका आविष्कार करते हैं, वे ऐश्वर्य्यशाली होकर मनुष्यजन्म के फलों को प्राप्त होते हैं ॥३१॥
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शिव शंकर शर्मा

अनया पुनरपि भगवान् भक्तमुपदिशतीव।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मेध्यातिथे ! यद्=यदा। अश्वान्=चपलेन्द्रियाणि वशीकृत्य। श्रद्धया=परमभक्त्या। वनन्वतः=संभजतः= मामाराधयतो जनस्य। रथे=रमणीये हृदयरथे। अहम्। आरुहम्=आरोहामि। तदा उत=तदैव। वामस्य वननीयस्य=श्रेष्ठस्य। वसुनः=धनस्य अभिलषितस्य। कर्मणि षष्ठी। उत्तमं धनं। चिकेतति=पश्यति। कश्चिकेततीत्यपेक्षायाम्। यो याद्वः पशुरस्ति=यदुषु मनुष्येषु साक्षिरूपेण तिष्ठति स याद्वः। पश्यतीति पशुर्द्रष्टा जीवात्मा। स सर्वं द्रष्टव्यं तदा पश्यतीति यावत् ॥३१॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगीश्वरस्यैश्वर्य्यं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (रथे) गतिशीलप्रकृतिमध्ये (वनन्वतः, अश्वान्) भजनीयान् व्यापकशक्तिमतः पदार्थान् (अहं) अहं कर्मयोगी (श्रद्धया) पदार्थजिज्ञासया (आरुहं) आरूढो भवेयं (उत) अथ तदा (यः) यः (याद्वः, पशुः) मनुष्येषु सूक्ष्मद्रष्टा (अस्ति) भवति सः (वामस्य) दुर्ज्ञेयस्य (वसुनः) पदार्थस्य तत्त्वं (चिकेतति) ज्ञातुं शक्नोति ॥३१॥