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अ॒व॒क्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म् । वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avakrakṣiṇaṁ vṛṣabhaṁ yathājuraṁ gāṁ na carṣaṇīsaham | vidveṣaṇaṁ saṁvananobhayaṁkaram maṁhiṣṭham ubhayāvinam ||

पद पाठ

अ॒व॒ऽक्र॒क्षिण॑म् । वृ॒ष॒भम् । य॒था॒ । अ॒जुर॑म् । गाम् । न । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । वि॒ऽद्वेष॑णम् । स॒म्ऽवन॑ना । उ॒भ॒य॒म्ऽक॒रम् । मंहि॑ष्ठम् । उ॒भ॒या॒विन॑म् ॥ ८.१.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

सर्वविघ्नविनाशक, निग्रहानुग्रहसमर्थ और सर्वप्रदाता परमात्मा ही है, अतः यही उपास्य देव है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस ऋचा से केवल इन्द्र के विशेषण कहे जाते हैं। ऐसे इन्द्र की प्रशंसा और स्तुति करो, इतना यहाँ पूर्व से ही सम्बन्ध रखता है। वह इन्द्र कैसा है (अवक्रक्षिणम्) दुःखनिवारक (वृषभम्+यथा) जैसे मेघ हो। मेघ का नाम वृषभ है, क्योंकि वह वर्षा करता है। जैसे मेघ वर्षा से भूमि के ताप को निवारण कर प्राणिमात्र का आनन्दजनक होता है, वैसे ही इन्द्र (परमात्मा) भी धनधान्यादि देकर भक्तों के क्लेशों का हरण करता है। अथवा भक्तों के मन में शान्ति विश्वास श्रद्धादि रूप जल को सींचकर क्लेशनिवारक होता है। अथवा वृषभ नाम सूर्य्य का है, क्योंकि वर्षा का मुख्य कारण सूर्य्य ही है। जैसे सूर्य्य जलप्रदान से भूमि के ऊपर विविध सस्यों को उत्पन्न कर प्रजाओं का हर्षप्रद होता है, तद्वत् परमात्मा भी शुभकर्मियों के मनोरथ पूर्ण करता है। अथवा वृषभ नाम बलीवर्द का है, वह जैसे गौओं में रेत सिक्त करता है, वैसे वह इन्द्र भी प्रथम प्रकृतियों में बीज स्थापित करता है, उससे सम्पूर्ण भुवन का प्रकाशक होता है। अथवा वृषभ नाम धनदाता का है, क्योंकि वह पात्रों में धन की वर्षा करता है, वैसे इन्द्र भी जगत् में प्रतिदिन महाधन की वर्षा किया करता है। इत्यादि अर्थ इस उपमा से हो सकते हैं। अन्यान्य अर्थ भी ऊहनीय हैं। पुनः वह इन्द्र कैसा है। (अजुरम्) अक्षया (गाम्+न)* पृथिवी के समान। जैसे यह पृथिवी नानाबीजधारिणी सर्वभूताश्रया वसुन्धरा प्रसिद्ध है, वैसा इन्द्र भी है। कदाचित् यह पृथिवी क्षीणा और निर्बीजा भी हो जाय, किन्तु परमात्मा का कोश कभी क्षययुक्त न होगा, यह अजुर पद से दिखलाया गया है। अथवा (अजुरम्) युवा (गाम्+न) बैल के समान। जैसे युवा बैल अन्यान्य पशुओं को नहीं सहता है, वैसे इन्द्र भी दुष्ट पुरुषों के अपराधों का सहन कदापि नहीं करता। पुनः वह कैसा है (चर्षणीसहम्) दुष्ट मनुष्यों को दण्ड देनेवाला। पुनः (विद्वेषणम्) दुर्जनों के लिये महाविद्वेषी। इन्द्र के समीप दुष्टजन खड़ा नहीं हो सकता, इसी कारण (संवनना) भक्तजनों से वह सेवनीय होता है। अर्थात् यदि वह दुष्टनिग्रह न करे, तो शिष्ट उसकी सेवा क्यों करें। इससे यह भी सिद्ध होता है कि परमात्मा अपराध क्षमा कदापि न करेगा। इसी कारण (उभयङ्करम्)† वह उभयङ्कर है, निग्रह और अनुग्रह दोनों करनेवाला है। यद्वा स्थावर जङ्गम दोनों संसारों का रचयिता होने से दोनों का शासक है। केवल शासक ही नहीं, किन्तु (मंहिष्ठम्) अतिशय दाता भी है। उसका दान सर्वत्र प्रसिद्ध है। अतः (उभयाविनम्) उभयरक्षक है। दुर्जनों को दण्ड भुगता कर बचाता है। सर्वदा उसको कारागार में ही बद्ध नहीं रहने देता। जगत् में सिंह और मृग दोनों प्रकार के पशु आनन्द से जीवित देखे जाते हैं। ये सब कर्मानुसार फल भोग रहे हैं। मनुष्यों में इससे भिन्न ईश्वरीय व्यवस्था है। यदि कहा जाय कि अधिकसंख्यक दुष्ट पुरुष पाए जाते हैं, तब ईश्वर निग्रहानुग्रहकर्ता कैसे ? इस आक्षेप का उत्तर यह है कि दण्ड के ही उद्देश से ईश्वरीय नियमानुसार विविध दुःख संसार में उत्पन्न होते रहते हैं, क्योंकि वेदादि शास्त्रों में ईश्वर का शासन प्रसिद्ध है। यदि वह शासक है तो कृपा और दण्ड दोनों उसके हाथ में अवश्य हैं। मनुष्य समाजों में इन दोनों की परीक्षा करो, तब देखोगे कि ईश्वर की क्या आश्चर्य विभूति है ॥२॥
भावार्थभाषाः - सम्राट्, सेनाधिपति, न्यायाधीश आदि राजकर्मचारी, ग्रामनायक, लोकमान्य चौधरी या पञ्च, आचार्य्य, अध्यापक, गृहपत्नी, शिक्षिका, आचार्य्या इस प्रकार के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय जन मिलकर प्रजाहितकर वस्तुओं की चिन्ता करें और समुत्थित विघ्नों का नाना उपायों से विनाश करें। हे धीरो ! इन्द्र के समान आलस्यरहित होकर अशुभकर्मियों को दण्ड, शुभकर्मियों को पुरस्कार देते हुए और प्रजाओं को शुभकर्मों में स्थापित करते हुए आप सब अपने जीवन को पुष्पित और फलित बनावें। एक ही चर्षणीसह शब्द या उभयङ्कर शब्द के आशय कितने हो सकते हैं, इसको आप लोग स्वयं विचारें, क्योंकि सर्व आशय प्रकट नहीं किए जा सकते। ग्रन्थ बहुत बढ़ जायगा ॥२॥
टिप्पणी: * वेदों में न शब्द का अर्थ इव (जैसे) भी होता है, इसके भी उदाहरण अन्यून हैं। कहीं चार्थ में भी न शब्द का प्रयोग होता है।उपमा−ऋग्वेद में शिक्षाप्रद और स्वभावप्रदर्शक उपमाएँ बहुत आती हैं और उनसे प्राचीन ऋषिगण और मुनिवृन्द लोकोपकारी विविध नियम और धर्मशास्त्र आदि बना गए हैं। जैसे−युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्। ऋ०। ८।२।१२ ॥ जैसे सुरा पीने पर उन्मत्त पुरुष युद्ध करते हैं। इस दृष्टान्त से ऋषियों ने मद्यपान का निषेधशास्त्र बनाया। पुनः−देवो न यः पृथिवीं विश्वधाया उपक्षेति हितमित्रो न राजा। पुरः मदः शर्मसदो न वीरा अनवद्या पतिजुष्टेव नारी ॥ ऋ० १।७३।३ ॥ इस एक ऋचा में चार उपमाएँ हैं। १−(देवः+न) जैसे सूर्य्य (पृथिवीम्) पृथिवी का धारण-पोषण करता है, वैसा ही (यः) जो अग्नि (विश्वधायाः) सर्व पदार्थों को विद्युद्रूप से धारण करता हुआ (उपक्षेति) सबमें निवास करता है। इससे दिखलाया कि सूर्य्य के समान सब ही जन ज्ञानप्रकाशक अज्ञानान्धविनाशक और दीनहीनपोषक बनें। २−द्वितीय उपमा (हितमित्रः+न+राजा) जैसे राजा सब प्रजाओं का हितकारक और मित्र होता है। इस दृष्टान्त से भगवान् उपदेश देते हैं कि राजा उसी को बनाओ, जो सदा प्रजाओं का हितचिन्तन ही करे और वह सबका मित्र बना रहे। जैसे पृथु, इक्ष्वाकु, अशोक आदि राजा हुए। तद्विपरीत विषयी, लम्पट, मूढ, अशिक्षित को राजा कदापि न बनाओ। जैसे वेनराजा इत्यादि। ३−तृतीय उपमा (पुरः+सदः+शर्मसदः+न+वीराः) जैसे सबके आगे बैठनेवाले कर्मवीर शर्मसद् हों। जगत् में जिनका जीवन ईश्वरीय कल्याण के ही लिये है, वे शर्मसद् कहलाते हैं। इस दृष्टान्त से दिखलाते हैं कि जो प्रजामङ्गलकारी जन हैं, उनकी पूरी प्रतिष्ठा करो। सबके आगे उन्हें बिठला धन्यवाद दो और उनकी प्रशस्ति का विस्तार करो। ४−चतुर्थ उपमा (अनवद्या) अनिन्दिता शुद्धा (पतिजुष्टा+इव+नारी) पतिसेविता नारी, जैसे−इस उपमा से उपदेश दिया जाता है कि स्त्रियाँ शुभकर्म करें कि जिससे उनकी सदा प्रशंसा ही हो, निन्दित निषिद्ध कर्मों में पैर न रक्खें और पति को भी उचित है कि शुद्धा पवित्रतमा स्त्री का सत्कार करें, उनकी सेवा छोड़कर अन्य वाराङ्गना आदि कुलटाओं का सेवन कदापि न करें। तब ही गृह स्वर्गधाम और जीवन सुखमय होगा। इत्यादि। इति संक्षेपतः।† उभयङ्कर−यहाँ इन्द्र उभयङ्कर कहा गया है, इसके उदाहरण भी अनेक हैं, यथा−तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिम् ॥ ऋ० १।८९।५ ॥ जो इन्द्र (जगतः) जंगम और (तस्थुषः) स्थावर दोनों का ईश और पालक है।ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुषः ॥ ऋ० ७।३२।१२ ॥ जो समस्त जंगम और स्थावर का ईशान है। इसी प्रकार यज्वा और अयज्वा, सुन्वान् और असुन्वान्, आर्य्य और दस्यु, अदेव और देव, द्वयु और अद्वयु इत्यादि शब्द इन्द्रसूक्तों में अधिक आते हैं, अतः यहाँ इन्द्र उभयङ्कर कहा गया है। इत्यादि अर्थों के अनुसन्धान से जो वेदपाठ करेंगे, उन्हें बहुत लाभ होगा। जैसे बाह्य जगत् के पदार्थों से कोविदगण विविध शिक्षाओं को ले भूरि-भूरि ग्रन्थप्रणयन कर आत्मशान्ति करते हैं, वैसे ही यदि आप वैदिक शब्दजगत् की ओर ध्यान देवेंगे, तो आप आत्मोद्धारक और जगद्धितैषी बन सकेंगे। समाज की शुद्धि तब ही होती है, जब शिष्टजनों की संख्या अधिक होती है। बहुत आदमी सर्वप्रिय बनने के लिये दुर्जन अन्यायी से भी सम्बन्ध जोड़ते हैं, वे समाज के कभी हितकर न होंगे। मनुष्य को भी उभयङ्कर बनना उचित है ॥२॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषभं, यथा, अवक्रक्षिणं) मेघ के समान अवकर्षण शक्तिवाला (अजुरं) जरारहित (गां, न) पृथिवी के समान (चर्षणिसहं) मनुष्यों के कर्मों को सहनेवाला (विद्वेषणं) दुश्चरित्र मनुष्यों का द्वेष्टा (संवनना) सम्यग् भजनीय (उभयंकरं) निग्रहानुग्रह करनेवाला (मंहिष्ठं) सब कामनाओं का पूर्ण करनेवाला (उभयाविनं) जीव और प्रकृति का स्वामी परमात्मा उपासनीय है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में गुणगुणिभाव से परमात्मा का स्वरूपवर्णन किया गया है कि वह परमात्मा अजर, अमर, अभय, नित्यपवित्र, सब मनुष्यों के कर्मों का द्रष्टा और जो सदाचारी मनुष्यों को सद्गति का प्रदाता है, वही मनुष्यमात्र का उपासनीय है।मन्त्र में लोकप्रसिद्ध मेघादिकों के दृष्टान्त इस अभिप्राय से कथन किये हैं कि साधारण पुरुष भी उसके गुणगौरव को जानकर उसकी स्तुति तथा उपासना करें, इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ में इस प्रकार की है किः− एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम्। विजरः पर आकाशादयमात्मा महान् ध्रुवः॥उसके जानने का एक ही प्रकार है कि वह जरादि अवस्थाओं से रहित महानात्मा आकाश से भी परे है, तात्पर्य्य यह है कि वैदिक लोग “दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः” ऋग्० ८।८।४८।३ इत्यादि मन्त्रों के प्रमाण द्वारा आकाश को एकदेशी और उत्पत्तिवाला मानते हैं, ईश्वर के समान सर्वव्यापक नहीं। इसी अभिप्राय से परमात्मा को आकाश से भी परे कहा है ॥भाव यह है कि सब पदार्थों का निर्माता और अधिष्ठाता एकमात्र परमात्मा ही है और उसी की उपासना करना मनुष्यमात्र को उचित है ॥
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शिव शंकर शर्मा

सर्वविघ्नविनाशकत्वान्निग्रहानुग्रहसमर्थत्वात् सर्वप्रदातृत्वाच्च परमात्मैवोपासनीय इत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - अनयेन्द्रं विशिनष्टि। ईदृशमिन्द्रं प्रशंसतेति पूर्वया ऋचा सम्बन्धः। कीदृशम्। वृषभं यथा अवक्रक्षिणम्=यथा वृषभमवक्रक्षिणं तथेन्द्रम्। वर्षतीति वृषभो मेघः। यद्वा वर्षति वर्षणस्य यो हेतुर्भवति स वृषभः सूर्य्यः। यद्वा वृषभो बलीवर्दो भवति गोषु रेतः सिञ्चनात्। यद्वा वृषभो महाधनी भवति धनानां वर्षणात्पात्रेषु। यथा मेघस्तापादीनामवक्रक्षी अवकर्षको विनाशकस्तथेन्द्रोऽपि भक्तानां दुःखापहारकः। यथा वा सूर्य्यो वर्षाकरणेन सस्यसम्पादकत्वाद् दारिद्र्यावकर्षकस्तथेन्द्रोऽपि यज्वनां मनोरथपूरकः। यथा बलीवर्दो वा गोषु रेतो दधाति तथेन्द्रोऽपि प्रथमं प्रकृतिषु सर्वबीजानि स्थापयति। तेन विश्वस्य भुवनस्यावक्रक्षी प्रकाशको भवति। यथा वा धनी पात्रेषु धनानि वर्षति तथेन्द्रोऽपि जगति महद्धनं प्रत्यहं वर्षतीति। इत्याद्यर्था ऊह्याः। पुनः कीदृशमिन्द्रम्−अजुरं गां न=अजुरां गामिव। वेदे न शब्द इवार्थोऽपि। अजुरमित्यत्र लिङ्गव्यत्ययः। गोशब्दस्य पुंस्त्वेऽपि पृथिवीवाचकस्य नित्यस्त्रीत्वात्। यथा अजुरा अक्षया। गौः=पृथिवी नानाबीजधारिणी सर्वभूताश्रयास्ति तथेन्द्रोऽपि। कदाचिद् इयं पृथिवी क्षीयेतापि न तथा परमात्मा। स हि सर्वदाऽक्षय इत्यजुरशब्देन ध्वन्यते तादृशम्। पुनः कीदृशम्−चर्षणीसहम्। चर्षणीति मनुष्यनाम यथाः−मनुष्याः। नरः। धवाः। जन्तवः। विशः। क्षितयः। कृष्टयः। चर्षणयः। नहुषः। हरयः। मर्याः। मर्त्याः। मर्त्ताः। व्राताः। तुर्वशाः। द्रुह्यवः। आयवः। यदवः। अनवः। पूरवः। जगतः। तस्थुषः। पञ्चजनाः। विवस्वन्तः। पृतनाः। इति पञ्चविंशतिर्मनुष्यानामानि निघण्टु २।३। चर्षणीन् दुष्टान् मनुष्यान् यः सहते अभिभवति दण्डयतीति चर्षणिसट्=दुष्टजननिहन्ता संहितायां चर्षणिशब्दस्य दीर्घः। तम्। अतएव विद्वेषणं=दुष्टान् विद्वेष्टि विशेषेण द्रुह्यतीति विद्वेषणः। न हि कश्चिद् दुष्ट इन्द्रसमीपं स्थातुं शक्नोति। अतएव संवनना=संवननं=सर्वैः शिष्टैः संभजनीयम्। पुनः कीदृशमिन्द्रम्−उभयंकरम्=उभौ निग्रहानुग्रहौ करोतीति उभयङ्करः। यद्वा उभौ स्थावरजंगमौ संसारौ करोतीति। यद्वा उभौ संसारवेदौ करोतीति। यद्वा शिष्टदुष्टान् प्रति क्रमश उभे सुखदुःखे करोतीति तम्। पुनः कीदृशम्−मंहिष्ठमतिशयदातारम्। पुनः कीदृशम्−उभयाविनम्=उभयरक्षकम्। उभौ स्थावरजंगमात्मकौ संसारौ योऽवति रक्षतीति उभयावी। यद्वा हिंसकाहिंसकौ उभौ रक्षतीति। दृश्यते संसारे सिंहोऽपि मृगोऽपि च आनन्देन जीवति। मनुष्येतराणां जीवानां मध्ये दृश्यत इयमीश्वरीया व्यवस्था न मनुष्येषु, चर्षणीसहमिति विशेषणात्। अधिकसंख्याकदुष्टमनुष्य- दर्शनात् कथमीश्वरो निग्रहकर्त्तेति सिद्ध्यति। इत्याक्षेपे ब्रूमः। दुष्टनिग्रहार्थमेव बहुलानि दुःखानि ईश्वरनियमेन जायन्ते। अचिन्त्यशक्त्तेरीशितुः शासनस्य प्रसिद्धेर्वेदादिषु ॥२॥
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आर्यमुनि

अथ ईश्वरस्वरूपं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषभं, यथा) मेघमिव (अवक्रक्षिणं) अवकर्षणशीलं (अजुरं) जरारहितं (गां, न) पृथिवीमिव (चर्षणिसहं) मनुष्यकर्मसोढारं (विद्वेषणं) दुश्चरितानां द्वेष्टारं (संवनना) सम्यग् भजनीयं (उभयंकरं) निग्रहानुग्रहकर्त्तारं (मंहिष्ठं) कामप्रदं (उभयाविनं) जीवप्रकृत्युभयोपेतम् ॥२॥