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यदि॒ स्तोमं॒ मम॒ श्रव॑द॒स्माक॒मिन्द्र॒मिन्द॑वः । ति॒रः प॒वित्रं॑ ससृ॒वांस॑ आ॒शवो॒ मन्द॑न्तु तुग्र्या॒वृध॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadi stomam mama śravad asmākam indram indavaḥ | tiraḥ pavitraṁ sasṛvāṁsa āśavo mandantu tugryāvṛdhaḥ ||

पद पाठ

यदि॑ । स्तोम॑म् । मम॑ । श्रव॑त् । अ॒स्माक॑म् । इन्द्र॑म् । इन्द॑वः । ति॒रः । प॒वित्र॑म् । स॒सृ॒ऽवांसः॑ । आ॒शवः॑ । मन्द॑न्तु । तु॒ग्र्य॒ऽवृधः॑ ॥ ८.१.१५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:15 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:15


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्र हमारी स्तुति को सुने, यह इससे प्रार्थना होती है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदि (मम स्तोमम्) मेरे स्तोत्र को वह इन्द्र (श्रवत्) सुने तो अवश्य (अस्माकम्) हमारे (इन्दवः) मनःसहित सकल प्राण (इन्द्रम्) इन्द्र को (मन्दन्तु) प्रसन्न करें, जो हमारे प्राण (तिरः) आन्तरिक ध्यान से (पवित्रम्) पवित्रता को (ससृवांसः) प्राप्त हैं अर्थात् परम पवित्र हैं। पुनः (आशवः) स्व स्व विषय में शीघ्रगामी अर्थात् शीघ्र बोधकर्त्ता हैं। तथा (तुग्र्यावृधः) आत्मा के सदा हर्ष देनेवाले हैं ॥१५॥
भावार्थभाषाः - संस्कृत, पवित्रीकृत, बहुसुश्रुत और साधनसम्पन्न आत्मा परमात्मतत्त्व का निश्चय करता है, इस हेतु ईश्वर की उपासना के लिये प्रथम आत्मा को योग द्वारा शुद्ध और पवित्र बनावे। तभी वह हम लोगों की स्तुति सुनेगा ॥१५॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मोपासकों के कार्यों की सिद्धि कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदि वह परमात्मा (मम) मेरे (स्तोमं) स्तोत्र को (श्रवत्) सुने तो (अस्माकं, इन्दवः) मेरे यज्ञ जो (तुग्र्यावृधः) जलादि पदार्थों द्वारा सम्पादित करके (आशवः) शीघ्र ही सिद्ध किये हैं, वे (तिरः) तिरश्चीन=दुष्प्राप्य (पवित्रं) शुद्ध (इन्द्रं) परमात्मा को (ससृवांसः) प्राप्त होकर (मन्दन्तु) हमको हर्षित करें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप मेरी स्तुति को सुनें, मैंने जो यज्ञादि शुभकर्म सम्पादित किये हैं वा करता हूँ, वे आपके अर्पण हों, मेरे लिये नहीं, कृपा करके आप इन्हें स्वीकार करें, ताकि मुझे आनन्द प्राप्त हो। इसी का नाम निष्काम कर्मभाव है। जो पुरुष निस्स्वार्थ शुभकर्म करता है, उस पर परमात्मा प्रसन्न होते और उसको आह्लाद प्राप्त होता है ॥१५॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रोऽस्माकं स्तुतिं शृणुयादिति प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रो मम कृतं। स्तोमं=स्तोत्रम्। यदि। श्रवत्=शृणुयात्। तदाऽस्माकम्। इन्दवः मनसा सह सर्वे प्राणा इन्द्रं। मन्दन्तु=हर्षयन्तु। ये चेन्दवः। तिरः=अन्तर्हितेन समाहितेन चेतसा। पवित्रं=पवित्रताम्। ससृवांसः=सृतवन्तः प्राप्नुवन्तः। पुनः। आशवः=स्वस्वविषये शीघ्रगामिनः आशुबोद्धार इत्यर्थः। पुनः। तुग्र्यावृधः=तुग्र्यस्य जीवात्मनो। वृधो=वर्धयितारः ॥१५॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मोपासकानां कार्याणि सिध्यन्तीति वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - अयं परमात्मा (यदि) यदा (मम) मदीयं (स्तोमं) स्तोत्रं (श्रवत्) शृणोतु तदा किं भवेत् इत्याह (अस्माकं, इन्दवः) अस्माकं यज्ञाः ये (तुग्र्यावृधः) जलादिद्रव्येण सम्पादिताः (आशवः) आशुसाधिताः (तिरः) तिरश्चीनं “दुष्प्रापमित्यर्थः” (पवित्रं) शुद्धं (इन्द्रं) परमात्मानं (ससृवांसः) प्राप्नुवन्तः (मन्दन्तु) अस्मान् सुखयन्तु ॥१५॥