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अम॑न्म॒हीद॑ना॒शवो॑ऽनु॒ग्रास॑श्च वृत्रहन् । स॒कृत्सु ते॑ मह॒ता शू॑र॒ राध॑सा॒ अनु॒ स्तोमं॑ मुदीमहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amanmahīd anāśavo nugrāsaś ca vṛtrahan | sakṛt su te mahatā śūra rādhasā anu stomam mudīmahi ||

पद पाठ

अम॑न्महि । इत् । अ॒ना॒शवः॑ । अ॒नु॒ग्रासः॑ । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । स॒कृत् । सु । ते॒ । म॒ह॒ता । शू॒र॒ । राध॑सा । अनु॑ । स्तोम॑म् । मु॒दी॒म॒हि॒ ॥ ८.१.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:14 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

इससे परम प्रेम दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे अज्ञाननिवारक सकलविघ्नविनाशक देव ! तेरी उपासना के समय में (अनाशवः) हम शीघ्रगामी न होवें। (च) और (अनुग्रासः) उग्र न होकर अर्थात् भयङ्करता से रहित स्वस्थचित्त होकर तेरी (अमन्महि+इत्) स्तुति ही किया करें अर्थात् भक्ति और श्रद्धा से शनैः शनैः शान्तचित्त से तेरी स्तुति करें, ऐसी शक्ति दे। (शूर) हे शूर ! महाप्रतापशाली देव (महता+राधसा) महती उपासना द्वारा (सकृत्) वर्ष में एकवार भी (सु) अच्छे प्रकार (ते) आपकी (स्तोमम्+अनु) स्तुति करके हम (मुदीमहि) आनन्दित होवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की उपासना सर्वदा शनैः शनैः शान्तचित्त से कर्त्तव्य है। मुझको नास्तिक मानकर लोग मेरी निन्दा करेंगे, इस हेतु केवल लोकभय से कोई उसकी उपासना करते हैं। कोई विक्षिप्तचित्तवाले पुरुष दूसरों के अपकार के लिये मारण, मोहन और उच्चाटन आदि प्रयोग करते हुए उसकी अर्चना करते हैं। ये दोनों अनुचित हैं। यह मातापितृभूत वेद सिखलाता है। और प्रतिवर्ष एकवार भी पूजोत्सव करके मनुष्य आनन्दित होवे, यह भी दिखलाया है ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे उग्रों के धननाशक परमात्मन् ! हम (अनाशवः, अनुग्रासः) शान्त तथा अक्रूर होकर (अमन्महि) आपकी स्तुति करते हैं (शूर) हे दुष्टों के हन्ता ! ऐसी कृपा करो कि हम (सकृत्) एकवार भी (महता, राधसा) महान् ऐश्वर्य्य से युक्त होकर (ते) आपकी (सुस्तोमं) सुन्दर स्तुति (अनु, मुदीमहि) मोदसहित करें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में स्तुति द्वारा परमात्मा से यह प्रार्थना की गई है कि हे भगवन् ! आप हमें ऐश्वर्य्ययुक्त करें, ताकि हम प्रसन्नतापूर्वक स्तुतियों द्वारा आपका गुणगान किया करें, या यों कहो कि जो मनुष्य शान्ति तथा अक्रौर्यभाव से परमात्मा की स्तुति करता हुआ कर्मयोग में प्रवृत्त होता है, उसको परमात्मा उच्च से उच्च ऐश्वर्य्यशाली बनाकर आनन्दित करते हैं, इसलिये प्रत्येक पुरुष को शान्तिभाव से उसकी उपासना में सदा प्रवृत्त रहना चाहिये ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

परमप्रेमानया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वृत्रहन्=वृत्रस्य अन्धकारस्य अज्ञानलक्षणस्य। हन्तः=विनाशक ! यद्वा वृत्राणामाच्छादकानां सर्वेषां विघ्नानां निवारक ! हे परमात्मन् ! वयम् अनाशवः=आशवः शीघ्रगामिनः। न आशवोऽनाशवः अशीघ्रगामिनः तवोपासनायां न त्वरितकर्तारो भवेम। पुनः। अनुग्रासः=अनुग्राः। न उग्रा अनुग्रा अहिंसकाः शान्ताः सन्तो वयम्। त्वाम्। अमन्महि+इत्=स्तवामैव। भक्तिश्रद्धापुरःसरं शनैः शनैस्त्वां शान्तचेतसा स्तुम इत्यर्थः। हे शूर ! महापराक्रमशालिन् देव ! ते=तव कृते। महता राधसा=महत्या उपासनया। सकृदेकवारमपि। वर्षे वर्षे। सु=शोभनम्। स्तोमं=स्तोत्रम्। अनुलक्षीकृत्य। मुदीमहि=मुदिता भवेम ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे उग्राणां धनस्य हन्तः वयं (अनाशवः) अत्वरमाणाः (च) तथा च (अनुग्रासः) अक्रूराः सन्तः (अमन्महि, इत्) स्तुम एव किमर्थम्−(शूर) हे दुष्टानां हन्तः ! (महता, राधसा) महता धनेन युक्तः (सकृत्) एकवारमपि (ते) तव (सुस्तोमं) शोभनं स्तोत्रं (अनु, मुदीमहि) मुदा सह कुर्वीमहि ॥१४॥