अब परमात्मा से भिन्न की उपासना का निषेध कथन-करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (सखायः) हे सबका हित चाहनेवाले उपासक लोगो ! (अन्यत्, मा, चित्, विशंसत) परमात्मा से अन्य की उपासना न करो (मा, रिषण्यत) आत्महिंसक मत बनो (वृषणं) सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले (इन्द्रं, इत्) परमैश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मा की ही (स्तोत) स्तुति करो (सचा) सब एकत्रित होकर (सुते) साक्षात्कार करने पर (मुहुः) बार-बार (उक्था, च, शंसत) परमात्मगुणकीर्तन करनेवाले स्तोत्रों का गान करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि हे उपासक लोगो ! तुम परमैश्वर्य्यसम्पन्न, सर्वरक्षक, सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले और सबके कल्याणकारक एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करो, किसी जड़ पदार्थ तथा किसी पुरुषविशेष की उपासना परमात्मा के स्थान में मत करो, सदा उसके साक्षात्कार करने का प्रयत्न करो और जिन आर्ष ग्रन्थों में परमात्मा का गुणवर्णन किया गया है अथवा जिन ग्रन्थों में उसके साक्षात्कार करने का विधान है, उन ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करते हुए मनन करो।उक्त मन्त्र में स्पष्टतया वर्णन किया है कि जो परमात्मा से भिन्न जड़ोपासक हैं, वे आत्महिंसक=अपनी आत्मा का हनन करनेवाले हैं और आत्मा का हनन करनेवाले सदा असद्गति को प्राप्त होते हैं, जैसा कि यजु० ४०।३ में भी वर्णन किया है किः− असुर्य्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥अर्थ−आत्महनः=आत्मा का हनन करनेवाले जनाः=जन मरने के पश्चात् असुरों के लोकों को प्राप्त होते हैं, जो अन्धतम से ढके हुए अर्थात् अन्धकारमय हैं। इस मन्त्र में “लोक” शब्द के अर्थ अवस्थाविशेष के हैं, लोकान्तर प्राप्ति के नहीं और इसी भाव को “अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते” यजु० ४०।९ में इस प्रकार वर्णन किया है कि जो अविद्या=विपरीत ज्ञान की उपासना करते हैं, वे अन्धतम को प्राप्त होते हैं, या यों कहो कि जो परमात्मा के स्थान में जड़ोपासना करते हैं, वे अपने इष्टफल को प्राप्त नहीं होते अर्थात् परमात्मा से अन्य की उपासना करनेवाले आत्महिंसक ऐहिक और पारलौकिक सुख से सदा वञ्चित रहते हैं, इसलिये उचित है कि सुख की कामनावाला पुरुष एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करे, क्योंकि परमात्मा सजातीय विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य है, इसलिये उसका सजातीय कोई पदार्थ नहीं, इसी कारण यहाँ अन्य उपासनाओं का निषेध करके परमात्मा की ही उपासना वर्णित की है ॥१॥