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न ते॑ विष्णो॒ जाय॑मानो॒ न जा॒तो देव॑ महि॒म्नः पर॒मन्त॑माप । उद॑स्तभ्ना॒ नाक॑मृ॒ष्वं बृ॒हन्तं॑ दा॒धर्थ॒ प्राचीं॑ क॒कुभं॑ पृथि॒व्याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na te viṣṇo jāyamāno na jāto deva mahimnaḥ param antam āpa | ud astabhnā nākam ṛṣvam bṛhantaṁ dādhartha prācīṁ kakubham pṛthivyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । जाय॑मानः । न । जा॒तः । देव॑ । महि॒म्नः । पर॑म् । अन्त॑म् । आ॒प॒ । उत् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । नाक॑म् । ऋ॒ष्वम् । बृ॒हन्त॑म् । दा॒धर्थ॑ । प्राची॑म् । क॒कुभ॑म् । पृ॒थि॒व्याः ॥ ७.९९.२

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:99» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णो) हे व्यापक परमेश्वर ! (ते) तुम्हारे (महिम्नः) महत्त्व के (परं, अन्तं) सीमा को (जायमानः) वर्त्तमानकाल में (जातः) भूतकाल में भी ऐसा कोई (न) नहीं हुआ, जो आपके अन्त को (आप) प्राप्त हो सका। आपने (नाकं) द्युलोक को (उदस्तभ्नाः) स्थित रखा है और आपकी (ऋष्वं) महिमा दर्शनीय है तथा (बृहन्तं) सबसे बड़ा है और (पृथिव्याः) पृथिवीलोक की (प्राचीं, ककुभं) प्राच्यादि दिशाओं को आप (दाधर्थ) धारण किये हुए हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - भूत, भविष्य, वर्त्तमान तीनों कालों में किसी की शक्ति नहीं, जो परमात्मा के महत्त्व को जान सके, इसी कारण उसका नाम अनन्त है, जिसको “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” ॥ तै०  २।१॥ इस वाक्य ने भी भलीभाँति वर्णन किया है। उसी ब्रह्म का यहाँ विष्णु नाम से वर्णन है, केवल यहाँ ही नहीं, किन्तु “य उ त्रिधातु पृथिवीमुत दाधार भुवनानि विश्वा” ॥ऋ० मं. १।१५४।४॥ में यह कहा है कि जिस एक अद्वैत अर्थात् असहाय परमात्मा ने  सत्वरजस्तम इन तीनों गुणों के समुच्चयरूप प्रकृति को धारण किया हुआ है, उस व्यापक ब्रह्म का नाम यहाँ विष्णु है। “विष्णोर्नु कं वीर्य्याणि प्रवोचं” ॥ ऋ. मं. १।१५४।१॥ “तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” ॥ ऋ. मं. १।२२।२०॥ “इदं विष्णुर्विचक्रमे” ॥ ऋ. १।२२।१७॥ इत्यादि शतशः मन्त्रों में उस व्यापक विष्णु के स्वरूप को वर्णन किया है। फिर न जाने, वेदों में आध्यात्मिकवाद की आशङ्का करनेवाले किस आधार पर यह कहा करते हैं कि वेदों में एकेश्वरवाद नहीं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ईश्वर का अनन्त सामर्थ्य

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- हे (विष्णो) = जगदीश्वर (न जायमानः) = न उत्पन्न होता हुआ और (जातः) = उत्पन्न हुआ कोई (ते महिम्न:) = तेरे महान् सामर्थ्य की (परम् अन्तम्) = परली सीमा को (न आप) = प्राप्त नहीं कर सका है। हे (देव) = सर्वप्रकाशक! तू (बृहन्तं) = बड़े भारी, (ऋष्वं) = महान् (नाकम्) = दुःख-रहित, मोक्ष धाम और आकाश को (उत् अस्तभ्नाः) = उठा रहा है और (पृथिव्याः) = पृथिवी की (प्राचीं ककुभं) = प्राची दिशा को जैसे सूर्य प्रकाशित करता है वैसे ही तू (पृथिव्याः) = जगत् को फैलानेवाली प्रकृति को (प्राचीं ककुभम्) = जगत् के उत्पन्न होने के पूर्व से उत्तम रूप से प्रकट होनेवाले आर्जवी भाव अर्थात् विकृति भाव को दाधर्थ धारण कराता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - वह जगदीश्वर अजन्मा है। उसका सामर्थ्य अनन्त है। वह मोक्ष का अधिपति है तथा आकाश, भूमि व समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता है। मूल प्रकृति में प्रेरणा करके विकृति उत्पन्न करता है, अर्थात् इस महान् सृष्टि को रचता है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णो) हे भगवन् ! (ते) तव (महिम्नः) महत्त्वस्य (परम्, अन्तम्) सीमानं (जायमानः) साम्प्रतिको जनः (जातः) भूतो जनश्च (न) नैव (आप) आप्तवान् (नाकम्) स्वर्गं (उत्, अस्तभ्ना) धारितवानस्ति, भवतः महत्त्वम् (ऋष्वम्) दर्शनीयः (बृहन्तम्) सर्वतोऽधिकश्च तथा च (पृथिव्याः) भूमेः (प्राचीम्) पूर्वां (ककुभम्) दिशां (दाधर्थ) दधासि च ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Vishnu, self-refulgent lord immanent and transcendent, no one bom either in the past or at present can reach the ultimate bounds of your grandeur and majesty. You uphold the high heaven of boundless glory and divine beauty and joy, and you hold the expanse of the directions of universal space.