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ज॒ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच । एन्द्र॑ पप्राथो॒र्व१॒॑न्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jajñānaḥ somaṁ sahase papātha pra te mātā mahimānam uvāca | endra paprāthorv antarikṣaṁ yudhā devebhyo varivaś cakartha ||

पद पाठ

ज॒ज्ञा॒नः । सोम॑म् । सह॑से । प॒पा॒थ॒ । प्र । ते॒ । मा॒ता । म॒हि॒मान॑म् । उ॒वा॒च॒ । आ । इ॒न्द्र॒ । प॒प्रा॒थ॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । यु॒धा । दे॒वेभ्यः॑ । वरि॑वः । च॒क॒र्थ॒ ॥ ७.९८.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:98» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे विद्वन् ! (जज्ञानः) तुमने पैदा होते ही (सहसे) बल के लिये (सोमम्) सौम्य स्वभाव बनानेवाले सोमरस का (पपाथ) पान किया और (ते) तुम्हारी माता ने (महिमानम्, उवाच) परमात्मा के महत्त्व का तुम्हारे प्रति उपदेश किया। तुमने (उरु, अन्तरिक्षम्) विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को (आपप्राथ) अपनी विद्याबल से परिपूर्ण किया तथा (देवेभ्यः) देवप्रकृतिवाले मनुष्यों के लिये (वरिवः) धनरूपी ऐश्वर्य (चकर्थ) उत्पन्न किया ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में इस बात का उपदेश किया गया है कि जो पुरुष प्रथम माता से शिक्षा उपलब्ध करता है तथा वैदिक संस्कारों द्वारा अपने स्वभाव को सुन्दर बनाता है, वह सर्वोत्तम विद्वान् होकर इस संसार में अपने यश को फैलाता है और वेदानुयायी पुरुषों के ऐश्वर्य को बढ़ाता है ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे विद्वन् ! (जज्ञानः) उत्पद्यमान एव (सहसे) बलाय (सोमम्) सोमरसं (पपाथ) पीतवानसि (ते) तव माता (महिमानम्, उवाच) ईश्वरप्रभावं तुभ्यमुपदिशत् (उरु, अन्तरिक्षम्) महदन्तरिक्षं (आपप्राथ) स्वविद्याबलेन पूरितवानसि (देवेभ्यः) देवप्रकृतिजनेभ्यः (वरिवः) धनाद्यैश्वर्यम् (चकर्थ) उदपत्थाः ॥३॥