पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणस्पते) हे ईश्वर ! (वां) तुम्हारी (इयम्) यह (सुवृक्तिः) दोषरहित स्तुति, जो कि (ब्रह्म, इन्द्राय) सर्वोपरि ऐश्वर्ययुक्त (वज्रिणे) ज्ञानस्वरूप आपके लिये (अकारि) की गयी है, वह (आविष्टम्) हमारी रक्षक हो और (धियः, जिगृतं, पुरन्धीः) हमारी सब भावनाओं को स्वीकार करे, (अर्यः) परमात्मा (वनुषाम्) प्रार्थनायुक्त हम लोगों के (अरातीः) शत्रुओं को (जजस्तम्) नाश करे ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ब्रह्मणस्पति शब्द उसी वेदपति परमात्मा के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिसका वर्णन इस सूक्त के कई एक मन्त्रों में प्रथम भी आ चुका है।ब्रह्मणस्पति के अर्थ वेद के पति हैं अर्थात् आदिसृष्टि में ब्रह्मवेदविद्या का दाता एकमात्र परमात्मा था, इसी अभिप्राय से परमात्मा को (ब्रह्म) वेद का पति कथन किया गया है ॥यद्यपि ब्रह्मशब्द के अर्थ प्रकृति के भी हैं, ब्रह्म बड़े को भी कहते हैं, इस प्रकार पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों का नाम भी ब्रह्म है, तथापि मुख्य नाम ब्रह्म परमात्मा का ही है, जैसा कि “तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म”। यजु० अ० ३२।१॥ इसमें अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म ये सब परमात्मा के नाम हैं। एवं “यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्यैष्ठाय ब्रह्मणे नमः“ ॥ अथ० १०।८।४।१॥ यहाँ (ज्येष्ठ) सबसे बड़ा ब्रह्म कह कर ब्रह्म शब्द को ब्रह्मवाचक सिद्ध किया है। एवं “देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म्म ममान्तरम्” ॥ साम० ९।२१।३ ॥ इस मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के लिये आया है। मन्त्र का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपनी रक्षा आप नहीं करते, वा यों कहो कि अपनी सेना को आप मारते हैं वा कायरता दिखलाते हैं, ऐसे सैनिकों को विद्वान् लोग नष्ट करें और यह प्रार्थना करें कि परमात्मा (वर्म्म) कवच के समान हमारा रक्षक हो। परमात्मा के सहारे से ही सब शुभ कामों की सिद्धि आस्तिक पुरुषों को रखनी चाहिये, केवल अपने उद्योग से नहीं।इसी प्रकार का मन्त्र ऋग्वेद मं० ६ सू० ७१ संख्या १९ में है। यहाँ भी “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” यह पाठ है। यहाँ भी सूक्त की समाप्ति में परमात्मा को रक्षक माना गया है, किसी अन्य वस्तु को नहीं।जो लोग यह कहा करते हैं कि ऋग्वेद में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थों में नहीं आया, उनको उक्त मन्त्र से ज्ञानलाभ करना चाहिये, क्योंकि उक्त मन्त्र में ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ में स्पष्ट है।जिन लोगों ने आजकल वेदों की हिंसा करके उनको निष्कलङ्क बनाने पर कमर बाँधी है, उन्होंने उक्त मन्त्र को सामवेदसंहिता से उड़ा दिया, क्योंकि उनके परिवार में यह मन्त्र ऋग्वेद में आ चुका।पहले तो यह कथन ही सर्वथा मिथ्या है कि यह मन्त्र पूर्णाङ्गतया ऋग्वेद में आ चुका, क्योंकि ऋग्वेद में “ब्रह्म वर्म ममान्तरम्” इतने पर समाप्त है और सामवेद में “शर्म वर्म ममान्तरम्” इतना और है, जिसके अर्थ वाक्यभेद से सर्वथा भिन्न हैं अर्थात् “योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः”।अथर्व० ३।।६।२७।१ ॥ जब यह अन्य वाक्य के साथ मिलकर आने से छह वार आने पर भी पुनरुक्त नहीं, तो फिर भी उक्त सामवेद का मन्त्र क्यों पुनरुक्ति के दोष से दूषित किया जाता है।अन्य उत्तर यह है कि ऋग्वेद में यह मन्त्र योद्धाओं के प्रकरण में आया है और सामवेद में ईश्वर के प्रकरण में है। इस प्रकार प्रकरणभेद से भी अर्थ भिन्न हैं। अस्तु, इस विषय को हम वेदमर्यादा में बहुत लिख आए है। यहाँ मुख्य प्रसङ्ग यह है कि जो लोग ब्रह्म शब्द के अर्थ वेदों में ईश्वर के नहीं मानते, किन्तु स्तोत्र वा गीत के ही मानते हैं, उनके मत के निरास के लिये उक्त मन्त्र का उदाहरण दिया गया।प्रायः यूरोपनिवासी विद्वानों का यह विचार है कि ब्रह्म शब्द केवल औपनिषद समय में आकर सर्वव्यापक ब्रह्म शब्द के अर्थों में लिया गया, पहले नहीं।इसका समाधान एक प्रकार से तो हम चारों वेदों का एक-एक मन्त्र प्रमाण दे कर आए, परन्तु विशेषरीति से समाधान यह है कि यदि वैदिक समय में ब्रह्म शब्द का प्रयोग सर्वव्यापक ब्रह्म में नहीं मानो, तो “यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” ॥ अथर्व १०।८।।४।१ ॥ में तीनों कालों में रस और सब से बड़ा ब्रह्म शब्द का अर्थ क्यों माना जाता ? इसी आधार को लेकर उपनिषदों में “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ तै० २।१॥ “प्रज्ञानं ब्रह्म” ऐ० ३।१॥ “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” ॥ बृ० ३।९।१८॥ “ब्रह्मैवेदं विश्वं” ॥ मु०। २।११ ॥ “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” ॥छा० ३।१४।१ ॥ “तपसा चीयते ब्रह्म” ॥मु० १।१।८ ॥ “यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्” ॥मु० ३।३॥ इत्यादि वाक्यों में ब्रह्म का निरूपण किया है। यह ब्रह्मनिरूपण एकमात्र वेद के आधार पर है, इसी अभिप्रायः से ब्रह्मविद्या वेदमूलक मानी गई है।केवल उपनिषदों में ही ब्रह्म का निरूपण नहीं, किन्तु जो प्रमाण १ प्रथम ऋग्वेद के मं० ६ का दिया गया है, उससे स्पष्ट सिद्ध है कि ब्रह्म नाम वेद में भी सर्वोपरि विश्वकर्त्ता जगदीश्वर का है।इसलिये कतिपय मन्त्रों में ब्रह्मणस्पति आ जाने से यह सन्देह नहीं करना चाहिये कि जब ब्रह्म का पति कोई और हुआ तो ब्रह्म शब्द ईश्वर के अर्थ नहीं देता ? किन्तु उक्त स्थान में यह स्पष्ट है कि यहाँ ब्रह्म नाम वेद का है। यों तो “यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः” ॥ कठ० १।२।१५॥ यहाँ ब्रह्म शब्द ब्राह्मण स्वभाववाले वर्ण के लिये भी आता है, एवं “तदेतद् ब्रह्म क्षत्रं विट् शूद्रः ॥” बृ०। १।४।१५ ॥ यहाँ भी वर्णवाची ब्रह्म शब्द है, परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि प्रथम ब्रह्म शब्द जात्यादिकों का वाची ही था और बहुत देर बाद ईश्वरवाची समझा गया, अस्तु। यह कल्पना सर्वथा युक्तिहीन और निराधार है।यदि जातिवाचक भी ब्रह्म शब्द समझा जाय, तो आपत्ति यह है कि ब्राह्मण तो उसका अपत्य हुआ पर उससे प्रथम ब्रह्म क्या था ? यदि कहो कि वह भी जातिवाचक था, तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वह किससे उत्पन्न होने के कारण ब्रह्म कहलाया ? यदि कहो कि वह तो गुणवाचक शब्द है अर्थात् जिसमें बड़प्पन है, उसका नाम ब्रह्म है, तो फिर ब्राह्मण शब्द गुणवाची क्यों नहीं अर्थात् जिसका (ब्रह्म) वेद वा ईश्वर से सम्बन्ध हो, उसको ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ ब्राह्मण शब्द के अर्थ होते हैं कि ‘ब्रह्मण इदं ब्राह्मणम्’ जो ब्रह्म से सम्बन्ध रखता हो। यहाँ व्याकरण की रीति से “तस्येदम्” ॥ ४।३।।१२०॥ इस सूत्र से अण् प्रत्यय है। यदि कहो कि “ब्राह्मोऽजातौ” अष्टा० ६।४।१७१॥ इस सूत्र से जातिभिन्नार्थ में सर्वत्र टि का लोप हो जाता है, तो ‘शतपथब्राह्मण’ यहाँ क्यों न हुआ। अस्तु, कुछ हो टि का लोप हो वा न हो, पर ब्राह्मण शब्द का प्रयोग तो जाति से भिन्नार्थ में भी पाया जाता है, जैसा कि ‘मण्डूका ब्राह्मणाः’ ॥मं० ७। सू० १०३ ॥ में पाया जाता है। क्या कोई कह सकता है कि यहाँ भी टि का अलुक् जाति मान कर हुआ है, कदापि नहीं।एवं सूक्ष्म विवेचना करने से सिद्ध यह हुआ कि ब्रह्म शब्द के मुख्यार्थ ईश्वर और गौणार्थ वेद और प्रकृत्यादि अन्य पदार्थ भी हैं।इसी अभिप्राय से गीता में कृष्णजी कहते हैं कि “मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्” ॥ गी० २४।।३॥ इस प्रकार यहाँ ब्रह्मणस्पति के अर्थ प्रकृति के अधिपति के भी लिये गये ॥और बात यह है कि इस सूक्त में ब्रह्मणस्पति और बृहस्पति का समानाधिकरण्य अर्थात् एक अर्थवाची दोनों शब्द हैं, फिर बृहस्पति को द्युलोक और प्रकृति को पृथिवीलोक कैसे पैदा कर सकता है ?यदि यह कहा जाय कि ‘जनित्री’ यह विशेषण द्युलोक और पृथिवीलोक को दिया गया है अर्थात् पृथिवीलोक और द्युलोक दोनों बृहस्पति के पैदा करनेवाले हैं, यह अर्थलाभ होता है, फिर बृहस्पति को पैदा करनेवाले द्युलोक और पृथिवीलोक क्यों न माने जायें ? इसका उत्तर यह है कि “प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस मन्त्र में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जनित्री वा जायमान के अर्थ प्रादुर्भाव के हैं, जिसके सरल भाषा में अर्थ प्रकट होना किये जा सकते हैं। सिद्ध यह हुआ कि द्युलोक और पृथिवीलोक ने परमात्मा के महत्त्व को सिद्ध किया। इसी अभिप्राय से अथर्ववेद में कहा है कि “यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्”॥ १०।४।३२॥ अर्थात् पृथिव्यादि लोक उसके ज्ञान के साधन हैं। इस बात को महर्षि व्यास ने “जन्माद्यस्य यतः” इस दूसरे सूत्र में वर्णन किया है कि इस चराचर संसार की उत्पत्ति, स्थिति, तथा प्रलय जिस बृहस्पति परमात्मा से होती है, उसको ब्रह्म कहते हैं ॥९॥