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इ॒मा जुह्वा॑ना यु॒ष्मदा नमो॑भि॒: प्रति॒ स्तोमं॑ सरस्वति जुषस्व । तव॒ शर्म॑न्प्रि॒यत॑मे॒ दधा॑ना॒ उप॑ स्थेयाम शर॒णं न वृ॒क्षम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imā juhvānā yuṣmad ā namobhiḥ prati stomaṁ sarasvati juṣasva | tava śarman priyatame dadhānā upa stheyāma śaraṇaṁ na vṛkṣam ||

पद पाठ

इ॒मा । जुह्वा॑नाः । यु॒ष्मत् । आ । नमः॑ऽभिः । प्रति॑ । स्तोम॑म् । स॒र॒स्व॒ति॒ । जु॒ष॒स्व॒ । तव॑ । शर्म॑न् । प्रि॒यऽत॑मे । दधा॑नाः । उप॑ । स्थे॒या॒म॒ । श॒र॒णम् । न । वृ॒क्षम् ॥ ७.९५.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:95» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इमा) ये याज्ञिक लोग (जुह्वाना) हवन करते हुए (युष्मदा) तुम्हारी प्राप्ति में रत (नमोभिः) नम्र वाणियों के द्वारा तुम्हारा आवाहन करते हैं। (सरस्वति) हे विद्ये ! (प्रतिस्तोमं) इनके प्रत्येक यज्ञ को (जुषस्व) सेवन कर। हे विद्ये ! (तव, प्रियतमे) तुम्हारे प्रियपन में (शर्म्मन्) सुख को (दधानाः) धारण करते हुए (उप) निरन्तर (स्थेयाम) सदैव तुम्हारी (शरणं) शरण (वृक्षः, न) आधार के समान हमको आश्रयण करे ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि, हे याज्ञिक पुरुषो ! तुम इस प्रकार विद्यारूप कल्पवृक्ष का सेवन करो, जिस प्रकार धूप से संतप्त पक्षिगण आकर छायाप्रद वृक्ष का आश्रयण करते हैं एवं आप इस सरस्वती विद्या का सब प्रकार से आश्रयण करें ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इमा) इमे याज्ञिकाः (जुह्वानाः) हवनं कुर्वन्तः (नमोभिः) नमोवाग्भिः (युष्मदा) त्वामाह्वयन्ति (सरस्वति) हे विद्ये ! (प्रतिस्तोमम्) प्रतियज्ञं (जुषस्व) प्रियतां (प्रियतमे) हे हितकारिणि ! (वृक्षम्, न) वृक्षमिव (तव, शरणम्) भवतीम्, शरणं (स्थेयाम) याम (शर्मन्) सुखं च (उप दधानाः) भुञ्जन्तः ॥५॥