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इ॒मामु॒ षु सोम॑सुति॒मुप॑ न॒ एन्द्रा॑ग्नी सौमन॒साय॑ यातम् । नू चि॒द्धि प॑रिम॒म्नाथे॑ अ॒स्माना वां॒ शश्व॑द्भिर्ववृतीय॒ वाजै॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imām u ṣu somasutim upa na endrāgnī saumanasāya yātam | nū cid dhi parimamnāthe asmān ā vāṁ śaśvadbhir vavṛtīya vājaiḥ ||

पद पाठ

इ॒माम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । सोम॑ऽसुति॑म् । उप॑ । नः॒ । आ । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । सौ॒म॒न॒साय॑ । या॒त॒म् । नु । चि॒त् । हि । प॒रि॒म॒म्नाथे॒ इति॑ प॒रि॒ऽम॒म्नाथे॑ । अ॒स्मान् । आ । वा॒म् । शश्व॑त्ऽभिः । व॒वृ॒ती॒य॒ । वाजैः॑ ॥ ७.९३.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:93» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राग्नी) ज्ञान-विज्ञान विद्याओं के ज्ञाता विद्वानों ! (नः) हमारे (इमां) इस (सोमसुतिं) विज्ञानविद्या के यन्त्रनिर्माणस्थान को (सौमनसाय) हमारे मन की प्रसन्नता के लिए (उपयातं) आकर दृष्टिगोचर करें, (हि) क्योंकि (अस्मान्) हमको (आ) सब प्रकार से (नु, चित्) निश्चय करके (सु, परिमम्नाथे) आप अपनाते हैं और (वां) आपको हम लोग (वाजैः) आपके योग्य सत्कारों से (शश्वद्भिः) निरन्तर (ववृतीय) निमन्त्रित करते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे यजमानो ! आप लोग ज्ञान-विज्ञान के ज्ञाता विद्वानों को अपनी विज्ञानशालाओं में बुलाएँ, क्योंकि ज्ञान तथा विज्ञान से बढ़कर मनुष्य के मन को प्रसन्न करनेवाली संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं, इसलिए तुम विद्वानों की सत्सङ्गति से मन के (सौमनस्य) अर्थात् विज्ञानादि भावों को बढ़ाओ, यही मनुष्यजन्म का सर्वोपरि फल है। सायणाचार्य्य ने यहाँ (मन्त्र) के अर्थ मेरे ही यज्ञ में आने के किये हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि यज्ञान्त में ऋत्विगादि विद्वान् और यजमान मिलकर परमात्मा से पापनिवृत्त्यर्थ यह प्रार्थना करें ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राग्नी) हे ज्ञानविज्ञानविद्यावेत्तारः ! (नः) अस्माकम् (इमाम्) इदं (सोमसुतिम्) विज्ञानविद्याया यन्त्रनिर्माणस्थानं (सौमनसाय) अस्मन्मनः प्रसादाय (उपयातम्) आगत्य पश्यत (हि) यतः (अस्मान्) अस्मान्सर्वान् (आ) सम्यक् (नु, चित्) निश्चयेन (सु, परिमम्नाथे) आत्मसात्कुर्वन्ति भवन्तः, वयं च (वाजैः) उपयुक्तसत्कारैः (शश्वद्भिः) अनेकैः (ववृतीय) निमन्त्रयामः (वाम्) युष्मान् ॥६॥