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आ वा॑यो भूष शुचिपा॒ उप॑ नः स॒हस्रं॑ ते नि॒युतो॑ विश्ववार । उपो॑ ते॒ अन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेय॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāyo bhūṣa śucipā upa naḥ sahasraṁ te niyuto viśvavāra | upo te andho madyam ayāmi yasya deva dadhiṣe pūrvapeyam ||

पद पाठ

आ । वा॒यो॒ इति॑ । भू॒ष॒ । शु॒चि॒ऽपाः॒ । उप॑ । नः॒ । स॒हस्र॑म् । ते॒ । नि॒ऽयुतः॑ । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । उपो॒ इति॑ । ते॒ । अन्धः॑ । मद्य॑म् । अ॒या॒मि॒ । यस्य॑ । दे॒व॒ । द॒धि॒षे । पू॒र्व॒ऽपेय॑म् ॥ ७.९२.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:92» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी पुरुष को सोमरस पीने के लिये बुलाना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वायो) हे कर्मयोगिन् “वाति=गच्छति स्वकर्मणाभिप्रेतं प्राप्नोतीति वायुः” जो कर्मों द्वारा अपने कर्तव्यों को प्राप्त हो, उसको वायु कहते हैं। “वायुर्वातेर्वेतेर्वा स्याद्गतिकर्मणः” वायु शब्द गतिकर्मवाली धातुओं से सिद्ध होता है (निरुक्त, दैवतकाण्ड १०–३)। इस प्रकार यहाँ वायु नाम कर्मयोगी का है। हे कर्मयोगिन् ! आप आकर हमारे यज्ञ को (आभूष) विभूषित कीजिये और (शुचिपाः) आप पवित्र वस्तुओं का पान करनेवाले हैं। (विश्ववारः) आप सबके वरणीय हैं, (ते) तुम्हारे (सहस्रं नियुतः) हजारों कर्म के प्रकार हैं, (नः) हमारा (अन्धः) अन्नादि वस्तुओं से (मद्यम्) आह्लादक जो सोमरस है, उसको (उप अयामि) मैं पात्र में रखता हूँ, (देव) हे दिव्यशक्तिवाले विद्वन् ! (पूर्वपेयं) पहिले पीने योग्य इसको (दधिषे) तुम धारण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - यजमान लोग अपने यज्ञों में कर्मयोगी पुरुषों को बुलाकर उत्तमोत्तम अन्नादि पदार्थों के आह्लादक रस उनकी भेंट करके उनसे सदुपदेश ग्रहण करें। वायु शब्द से इस मन्त्र में कर्मयोगी का ग्रहण है, किसी वायुतत्त्व या किसी अन्य वस्तु का नहीं। यद्यपि वायु शब्द के अर्थ कहीं ईश्वर के कहीं वायुतत्त्व के भी हैं, तथापि यहाँ प्रसङ्ग से वायु शब्द कर्मयोगी का बोधक है, क्योंकि इसके उत्तर मन्त्र में “शचीभिः” इत्यादिक कर्मबोधक वाक्यों से कर्मप्रधान पुरुष का ही ग्रहण है और यहाँ “वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरं कृताः” ॥१।२।१॥ इत्यादि मन्त्रों में वायु शब्द से ईश्वर का ग्रहण किया है, वहाँ ईश्वर का प्रसङ्ग है, पूर्वोक्त सूक्तों की सङ्गति से वायु शब्द ईश्वर का प्रतिपादक है अर्थात् “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्” ॥१।१।१॥ इस ईश्वरप्रकरण में पढ़े जाने के कारण वहाँ वायु शब्द ईश्वर का बोधक है, क्योंकि “शन्नो मित्रः शं वरुणः” ॥तैत्तिरीय ब्रा. १ ॥ इस मन्त्र में वायु शब्द ईश्वर के प्रकरण में पढ़ा गया है। जिस प्रकार वहाँ ईश्वरप्रकरण है, इसी प्रकार यहाँ विद्वानों से शिक्षालाभ करने के प्रकरण में पढ़े जाने के कारण वायु शब्द विद्वान् का बोधक है, किसी अन्य वस्तु का नहीं ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ सोमरसपानार्थं कर्मयोगिनो यज्ञेष्वाह्वानमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वायो) हे कर्मयोगिन् ! भगवन् अस्मद्यज्ञं (आ, भूष) आगत्य भूषयतु (शुचिपाः) शुचिपदार्थस्य पातास्ति, (विश्ववार) हे लोकभजनीय ! (ते) तव (सहस्रम्, नियुतः) अनेकधा कर्मप्रकाराः सन्ति (नः) अस्माकम् (अन्धः) अन्नादिकैः (मद्यम्) आह्लादनीयं सोमरसं (उप, अयामि) पात्रे निदधामि (देव) हे दिव्यशक्तिमन् ! (पूर्वपेयम्) भवतैव पूर्वपेयमिमं रसं (दधिषे) गृह्णातु ॥१॥