पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रवायू) हे कर्मयोगी और ज्ञानयोगी पुरुषो ! तुम लोग हमारे यज्ञों में आकर (इदम्) इस (बर्हिः) आसन पर (आसदतम्) बैठो और (यावत्) जब तक (तन्वः) हमारे शरीर में (तरः) स्फूर्ति है, तब तक और (यावत्) जब तक (ओजः) ब्रह्मचर्य का प्रभाव है और (यावन्नरः, चक्षसः) हम ज्ञानी हैं, (दीध्यानाः) दीप्तिवाले हैं, तब तक आप (अस्मे) हमारे (सोमं) स्वभाव को (शुचिं) पवित्र बनायें, क्योंकि (शुचिपा) आप हमारे शुभ कर्मों की रक्षा करनेवाले हैं, इसलिये (पातं) आप हमारे यज्ञों में आकर हमको पवित्र करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जब तक मनुष्य के शरीर में कर्म करने की शक्ति रहती है और जब तक ब्रह्मचर्य के प्रभव से उत्पन्न हुआ ओज रहता है और जब तक सत्य के समझने की शक्ति रहती है, तब तक उसे ज्ञानयोगी और कर्मयोगी पुरुषों से सदैव यह प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन्, आप मेरे समक्ष आकर मुझे सत्कर्मों का उपदेश करके साधु स्वभाववाला बनाइये। जो लोग यह शङ्का किया करते हैं कि वेदों में सदाचार का उपदेश नहीं, उनको ऐसे सदाचार के बोधक उक्त मन्त्रों पर अवश्य ध्यान देना चाहिये। वेद में ऐसे सहस्रों मन्त्र हैं, जिनमें केवल सदाचार की शिक्षा का वर्णन किया गया है ॥४॥