पदार्थान्वयभाषाः - (वरुणः) सर्वपूज्य परमात्मा (वसिष्ठं) उत्तमगुणवाले विद्वान् को (नावि) कर्मों के आधार पर (आधात्) स्थिर करता है, (ह) निश्चय करके (ऋषिं) ऋषि (चकार) बनाता है और (महोभिः) उत्तम साधनों द्वारा (स्वपाः) सुन्दर कर्मोंवाला बनाता है, (विप्रः) मेधावी परमात्मा (स्तोतारं) स्तुति करनेवाला बनाता है और (अह्नां) उक्त विद्वान् के दिनों को (सुदिनत्वे) अच्छे दिनों में परिणत करता है तथा (उषसः) प्रातःकाल के प्रकाशों को और (द्यावः) दिन के प्रकाश को (नु) अच्छी तरह (यात्) प्राप्त करता हुआ (ततनन्) विस्तार करता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा जिस पुरुष के शुभ कर्म देखता है, उसको उत्तम विद्वान् बनाता है और कर्मानुसार ही परमात्मा ऋषि, विप्र, ब्राह्मणादि पदवियें प्रदान करता है। इस मन्त्र में वर्णव्यवस्था भी गुणकर्मानुसार कथन की गई है, यही भाव “तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणं” ॥ ऋग् अ० ८ अ० ६ व० ४ ॥ “तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्” ॥ ऋ० ८।७।११।४॥ इत्यादि मन्त्रों में भी कर्मानुसार परमात्मा की कामना से ही ब्राह्मणादि पदवियें प्राप्त होती हैं, यही भाव है। उपनिषद् में भी कर्मानुसार ही ऊँच-नीच व्यवस्था कथन की है। जैसा कि “एष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते, एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते” ॥कौ० ३।८॥ परमात्मा कर्मों द्वारा ही ऊँच-नीच अवस्था को प्राप्त कराता है, यही व्यवस्था उक्त मन्त्र में कथन की है ॥४॥