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प्र शु॒न्ध्युवं॒ वरु॑णाय॒ प्रेष्ठां॑ म॒तिं व॑सिष्ठ मी॒ळ्हुषे॑ भरस्व । य ई॑म॒र्वाञ्चं॒ कर॑ते॒ यज॑त्रं स॒हस्रा॑मघं॒ वृष॑णं बृ॒हन्त॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra śundhyuvaṁ varuṇāya preṣṭhām matiṁ vasiṣṭha mīḻhuṣe bharasva | ya īm arvāñcaṁ karate yajatraṁ sahasrāmaghaṁ vṛṣaṇam bṛhantam ||

पद पाठ

प्र । शु॒न्ध्युव॑म् । वरु॑णाय । प्रेष्ठा॑म् । म॒तिम् । व॒सि॒ष्ठ॒ । मी॒ळ्हुषे॑ । भ॒र॒स्व॒ । यः । ई॒म् । अ॒र्वाञ्च॑म् । कर॑ते । यज॑त्रम् । स॒हस्र॑ऽमघम् । वृष॑णम् । बृ॒हन्त॑म् ॥ ७.८८.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:88» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब ईश्वर की भक्ति कथन की जाती हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसिष्ठ) हे सर्वोत्तम गुणवाले विद्वन् ! आप (वरुणाय) सर्वाधार परमात्मा (मीळ्हुषे) जो भरण-पोषण करनेवाला है, उसके लिये (प्रेष्ठाम्) प्रेममयी (शुन्ध्युवम्) अविद्या के नाश करनेवाली (मतिम्) बुद्धि को (प्र, भरस्व) धारण करें, (यः) जो परमात्मा (यजत्रम्) प्राकृतयज्ञ करनेवाले (सहस्रामधम्) अनन्त प्रकार के बल को देनवाले (वृषणम्) वृष्टि करनेवाले (बृहन्तम्) सबसे बड़े (ईम्, अर्वाञ्चम्) इस प्रत्यक्षसिद्ध सूर्य को जो (करते) उत्पन्न करता है, तुम एकमात्र उसी की उपासना करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे स्नातक विद्वानों ! तुम उसकी उपासना करो, जिसने सूर्य-चन्द्रमा को निर्माण किया है और जो इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय का कारण है, जिसके भय से अग्न्यादि तेजस्वी पदार्थ अपने-अपने तेज को धारण किये हुये हैं, जैसा कि “भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः॥” कठ० ६,३,॥ उसके भयसे अग्नि तपती है, उसी के भय से सूर्य प्रकाश करता है, विद्युत् और वायु इत्यादि शक्तियें उसी के बल से परिभ्रमण करती हैं। “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्” ऋग् मं० १० सू० १९०।३॥ जिसने सूर्यचन्द्रादि पदार्थों को रचा है, उसी धाता सब निर्माता परमात्मा की उपासना पूर्व मन्त्र में कथन की गयी है ॥१॥
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आर्यमुनि

अथेश्वरस्वरूपप्राप्तिरुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसिष्ठ) भोः सद्गुणसम्पन्न विद्वन् ! भवान् (वरुणाय) सर्वाधिष्ठानाय (मीळ्हुषे) सर्वान् बिभ्रते परमात्मने (प्रेष्ठाम्) प्रियतमां (शुन्ध्युवम्) अविद्यानाशिनीं (मतिम्) बुद्धिं (प्र, भरस्व) दधातु (यः) योऽसौ परमात्मा (यजत्रम्) प्राकृतयज्ञं कुर्वन्तम् (सहस्रामघम्) अनन्तबलदं (वृषणम्) वृष्टिकर्त्तारं (बृहन्तम्) सर्वतोऽधिकं (ईम्, अर्वाञ्चम्, इमम्) प्रत्यक्षदेवं सूर्यं (करते) जनयति तमेवानन्यचेताः सन्नुपास्व ॥१॥