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न स स्वो दक्षो॑ वरुण॒ ध्रुति॒: सा सुरा॑ म॒न्युर्वि॒भीद॑को॒ अचि॑त्तिः । अस्ति॒ ज्याया॒न्कनी॑यस उपा॒रे स्वप्न॑श्च॒नेदनृ॑तस्य प्रयो॒ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na sa svo dakṣo varuṇa dhrutiḥ sā surā manyur vibhīdako acittiḥ | asti jyāyān kanīyasa upāre svapnaś caned anṛtasya prayotā ||

पद पाठ

न । सः । स्वः । दक्षः॑ । व॒रु॒ण॒ । ध्रुतिः॑ । सा । सुरा॑ । म॒न्युः । वि॒ऽभीद॑कः । अचि॑त्तिः । अस्ति॑ । ज्याया॑न् । कनी॑यसः । उ॒प॒ऽअ॒रे । स्वप्नः॑ । च॒न । इत् । अनृ॑तस्य । प्र॒ऽयो॒ता ॥ ७.८६.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:86» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

प्रारब्धजन्य कुप्रवृत्ति से आये हुए पापों के मार्जनार्थ प्रार्थना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे सबको स्वशक्ति में वेष्टन करनेवाले परमात्मन् ! (स्वः) अपनी प्रकृति से जो (दक्षः) कर्म किया जाता है, (सः) वही पापप्रवृत्ति में कारण (न) नहीं होता, किन्तु (ध्रुतिः) मन्दकर्मों में जो दृढ़ प्रवृत्ति है, (सा) वह (सुरा) मद के तुल्य होने से (मन्युः) क्रोध, पापप्रवृत्ति का कारण है और (विभीदकः) द्यूतादि व्यसन तथा (अचित्तिः) अज्ञान (अस्ति) है, (ज्यायान्, कनीयसः, उपारे) इस तुच्छ जीव के हृदय में अन्तर्यामी पुरुष भी है, जो शुभकर्मी को शुभकर्मों की ओर उत्साह देता और मन्दकर्मी को मन्दप्रवाह की ओर प्रवाहित करता है, (स्वप्नः, चन, इत्) स्वप्न का किया हुआ कर्म भी (अनृतस्य, प्रयोता) अनृत की ओर ले जानेवाला होता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का आशय यह है कि अपने स्वभाव द्वारा किया हुआ कर्म ही पाप की ओर नहीं ले जाता, किन्तु (१) जीव की प्रकृति=स्वभाव, (२) मन्दकर्म, (३) अज्ञान, (४) क्रोध, (५) ईश्वर का नियमन, ये पाँच जीव की सद्गति वा दुर्गति में कारण होते हैं, जैसा कि कौषीतकी उप० में वर्णन किया है कि “एष एव साधु कर्म कारयति, तं यमधो निनीषते” कौ० ३।३।८।=जिसको वह देव अधोगति को प्राप्त कराना चाहता है, उसको नीचे की ओर ले जाता और जिसको उच्च बनाना चाहता है, उसको उन्नति के पथ पर चलाता है। यहाँ यह शङ्का होती है कि ऐसा करने से ईश्वर में वैषम्य तथा नैर्घृण्यरूप दोष आते हैं अर्थात् ईश्वर ही अपनी इच्छा से किसी को नीचा और किसी को ऊँचा बनाता है ? इसका उत्तर यह है कि ईश्वर पूर्वकृत कर्मों द्वारा फलप्रदाता है और उस फल से स्वयंसिद्ध ऊँच-नीचपन आजाता है। जैसे किसी पुरुष को जहाँ नीचकर्म करने का दण्ड मिला, उतने काल जो वह स्वकर्म करने से वञ्चित रहा, इससे वह दूसरों से पीछे रह गया। इस भाव से ईश्वर जीव की उन्नति तथा अवनति का हेतु है, वास्तव में जीव के स्वकृत कर्म ही उसकी उन्नति तथा अवनति में कारण होते हैं। इसी भाव से जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र और भोगने में परतन्त्र माना है, कर्मानुसार फल देने से ईश्वर में कोई दोष नहीं आता ॥६॥
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आर्यमुनि

अथ प्रारब्धजन्यकुप्रवृत्तेरागतान् स्वापराधान्मोचयितुं प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) भोः स्वशक्त्या विश्वस्य वेष्टयितः भगवन् ! (स्वः) स्वप्रकृत्या (दक्षः) यत्किञ्चित्कर्म क्रियते (सः) तदेव पापप्रवृत्त्यां कारणं (न) न भवति, किम्पुनस्तदुच्यते (ध्रुतिः) मन्दकर्मसु या दृढा प्रवृत्तिः (सा) सैव (सुरा) सुरावत्वाद्धेतोः (मन्युः) क्रोध एव तत्प्रवृत्तौ कारणम् (विभीदकः) अन्यदपि यत् द्यूतादिव्यसनम्, तथा (अचित्तिः) अज्ञानं च (अस्ति) विद्यते (ज्यायान्, कनीयसः, उपारे) अस्य तुच्छजीवस्य हृदि सर्वज्ञः पुरुषोऽप्यस्ति, यः सुकर्मविधातॄन् सुकर्म कारयितुं प्रोत्साहयति दुष्कर्मविधातॄन् दुष्कर्म कारयितुं च, (स्वप्नः, चन, इत्) स्वप्नावस्थायां कृतमपि कर्म (अनृतस्य, प्रयोता) अनृतस्य प्रयोजकं भवति ॥६॥