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अव॑ द्रु॒ग्धानि॒ पित्र्या॑ सृजा॒ नोऽव॒ या व॒यं च॑कृ॒मा त॒नूभि॑: । अव॑ राजन्पशु॒तृपं॒ न ता॒युं सृ॒जा व॒त्सं न दाम्नो॒ वसि॑ष्ठम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava drugdhāni pitryā sṛjā no va yā vayaṁ cakṛmā tanūbhiḥ | ava rājan paśutṛpaṁ na tāyuṁ sṛjā vatsaṁ na dāmno vasiṣṭham ||

पद पाठ

अव॑ । द्रु॒ग्धानि॑ । पित्र्या॑ । सृ॒ज॒ । नः॒ । अव॑ । या । व॒यम् । च॒कृ॒म । त॒नूभिः॑ । अव॑ । रा॒ज॒न् । प॒शु॒ऽतृप॑म् । न । ता॒युम् । सृ॒ज । व॒त्सम् । न । दाम्नः॑ । वसि॑ष्ठम् ॥ ७.८६.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:86» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

अब पैत्रप्रकृति द्वारा आये हुए पापों के मार्जनार्थ प्रार्थना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) हे सर्वोपरि विराजमान जगदीश्वर ! आप (द्रुग्धानि, पित्र्या) माता-पिता की प्रकृति से (नः) हम में आये हुए दोष और (या) जिनको (वयं) हमने (तनूभिः) शरीर द्वारा (चकृम) किया है (अव) और जो (पशुतृपं) पशुओं के समान हमारी विषयवासनारूप वृत्ति तथा (तायुं, न) चोरों के समान हमारे भाव हैं, उनको (सृज) दूर करके (दाम्नः) रज्जु के साथ बँधे हुए (वत्सम्) वत्स के (न) समान (वसिष्ठं) विषय-वासनाओं में लिप्त मुझको (अव, सृज) मुक्त करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में विषय-वासना में लिप्त जीवन की ओर से यह प्रार्थना की गई है कि हे जगदीश्वर ! जो स्वभाव मेरे माता-पिता की ओर से मुझमें आया है अथवा मैंने अपने दुष्कर्मों से जो प्रकृति बना ली है, उसको आप अपनी कृपा से दूर करके मुझको अपना समीपी बनावें। जिस प्रकार रज्जु से बँधा हुआ वत्स अपनी माता का दूध नहीं पी सकता, इसी प्रकार विषयवासनारूप रज्जु में बँधा हुआ मैं आपके स्वरूपरूपी कामधेनु का दुग्धपान नहीं कर सकता, हे प्रभो ! आपसे विमुख करनेवाले विषयावासनारूप बन्धनों से मुक्त करके मुझको आनन्द का भोक्ता बनायें, यह मेरी आपसे प्रार्थना है ॥५॥
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आर्यमुनि

अथ पित्र्यपापानि मार्ष्टुं प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) भो विराजमान भगवन् ! भवान् (द्रुग्धानि, पित्र्या) मातापित्रोः प्रकृतेः (नः) आगता अस्माकं दोषाः, तथा (या) यानि (वयम्) वयं (तनूभिः) शरीरेण (चकृम) अकार्ष्म (अव) तानि मुञ्चतु (पशुतृपम्) पशूनामिवास्माकं विषयवासनाः तथा (तायुम्, न) तस्कराणामिव मद्भावाः सन्ति, तान् (सृज) अपनयतु, (दाम्नः) रज्जुना बद्धेन (वत्सम्) वत्सेन सदृशं (वसिष्ठम्) विषयानुविद्धं मां (अवसृज) मुञ्चतु ॥५॥