अब वरुणरूप परमात्मा की उपासना से मनुष्य-जीवन की पवित्रता कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो परमात्मा (वि) भलीभाँति (रोदसी) द्युलोक (चित्) और (उर्वी) पृथिवीलोक को (तस्तम्भ) थामे हुए है और जो (बृहन्तं) बड़े-बड़े (नक्षत्रं) नक्षत्रों को (च) और (भूम) पृथिवी को (पप्रथत्) रचता, तथा (नाकम्) स्वर्ग (ऋष्वं) नरक को (द्विता) दो प्रकार से (नुनुदे) रचता है (तु) निश्चय करके (अस्य) इस वरुणरूप परमात्मा को (धीरा) धीर पुरुष (महिना) महत्त्व द्वारा (जनूंषि) जानते अर्थात् उसके ज्ञान का लाभ करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा इस सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का रचयिता है और जिसने कर्मानुसार स्वर्ग=सुख और नरक=दुःख को रचा है, उसके महत्त्व को धीर पुरुष ही विज्ञान द्वारा अनुभव करते हैं, जैसा कि अन्यत्र भी वर्णन किया है कि–“तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीराः। तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा” यजु० ॥३१॥१९॥ सम्पूर्ण ब्रहमाण्डों की योनि=उत्पत्तिस्थान परमात्मा को धीर पुरुष ही ज्ञान द्वारा अनुभव करते हैं, जो सबको अपने वश में किये हुए है। इसी भाव को महर्षि व्यास ने “ योनिश्चेह गीयते” ॥ब्र० सू० १।४।२७॥ में वर्णन किया है कि एकमात्र परमात्मा ही सब भूतों की योनि=निमित्त कारण है और “आनीदवातं स्वधया तदेकं” ॥ऋग्० मं. १०।२९।२॥ में भलीभाँति वर्णन किया है कि स्वधा=माया=प्रकृति के साथ वह एक है अर्थात् परमात्मा निमित्तकारण और प्रकृति उपादानकारण है। इसी भाव को श्वेताश्वरोपनिषद् में इस प्रकार वर्णन किया है कि “मायान्तु प्रकृतिं विद्यात्, मायिनन्तु महेश्वरं”=माया को प्रकृति जान अर्थात् माया तथा प्रकृति ये दोनों उस उपादानकारण के नाम हैं और “मायिनं” प्रकृतिवाला उस महेश्वर=परमात्मा को जानो। इससे सिद्ध है कि वही परमात्मा इस सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड का रचयिता और वही सबका नियन्ता=नियम में चलानेवाला है, उसकी महिमा को ज्ञान द्वारा अनुभव करके उसी की उपासना करनी चाहिए, अन्य की नहीं ॥१॥