पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रावरुणा) हे राजपुरुषो ! तुम (अस्य, मदे) इस राज्यप्रभुत्व में (धियः, पिन्वतं) अपने आपको कर्मयोग से पुष्ट करो, (अनु) तदनन्तर (ओजसा) अपने तेज से (अपां, खानि) शत्रु के जलदुर्गों को (आ, अतृन्तं) भले प्रकार नष्ट-भ्रष्ट करके (दिवि, प्रभुं) दिन के प्रभु (सूर्य्य) सूर्य को (ऐरयतं) अपने धूम्र-बाणों से आच्छादन कर (मायिनः) मायावी शत्रुओं को (अपितः) सब ओर से (अपिन्वतं) परास्त करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम अपने उग्र कर्मों द्वारा शक्तिसम्पन्न होकर मायावी शत्रुओं का मर्दन करो अर्थात् प्रथम अपनी जलयन्त्रविद्या द्वारा उनके जलदुर्गों को विजय करो, तदनन्तर अपनी पदार्थविद्या से सूर्य्य के तेज को आच्छादन करके अर्थात् यन्त्रों द्वारा दिन को रात्रि बनाकर शत्रुओं पर विजय करो। जो संसार में न्याय का भङ्ग करते हुए अपनी माया से प्रजाओं में नाना प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करते हैं, उनका सर्वनाश तथा श्रेष्ठों का रक्षण करना तुम्हारा परम कर्त्तव्य है ॥३॥