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श्रव॑: सू॒रिभ्यो॑ अ॒मृतं॑ वसुत्व॒नं वाजाँ॑ अ॒स्मभ्यं॒ गोम॑तः । चो॒द॒यि॒त्री म॒घोन॑: सू॒नृता॑वत्यु॒षा उ॑च्छ॒दप॒ स्रिध॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śravaḥ sūribhyo amṛtaṁ vasutvanaṁ vājām̐ asmabhyaṁ gomataḥ | codayitrī maghonaḥ sūnṛtāvaty uṣā ucchad apa sridhaḥ ||

पद पाठ

श्रवः॑ । सू॒रिऽभ्यः॑ । अ॒मृत॑म् । व॒सु॒ऽत्व॒नम् । वाजा॑न् । अ॒स्मभ्य॑म् । गोऽम॑तः । चो॒द॒यि॒त्री । म॒घोनः॑ । सू॒नृता॑ऽवती । उ॒षाः । उ॒च्छ॒त् । अप॑ । स्रिधः॑ ॥ ७.८१.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:81» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे भगवन् ! (सूरिभ्यः, श्रवः) विद्वानों के लिए यश (अमृतं) अमृत (वसुत्वनं) उत्तम धन, तथा (वाजान्) नानाप्रकार के अन्न प्रदान करें और (अस्मभ्यं) हमको (गोमतः) ज्ञान के साधन कला-कौशलादि (चोदयित्री) सबको प्रेरण करनेवाली शक्ति (उषाः, मघोनः) उषःकाल में यज्ञ करने का सामर्थ्य और (सूनृतावती) उत्तम भाषण करने की शक्ति दें और (अप, स्रिधः) हमसे संताप को (उच्छत्) दूर करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वशक्तिसम्पन्न भगवन् ! आप शूरवीरों की वीरतारूप सामर्थ्य देनेवाले, विज्ञानियों को विज्ञानरूप सामार्थ्य देते, आप ही नानाप्रकार के अन्न तथा ज्ञान के साधन कला-कौशलादि के प्रदाता हैं, आप ही सब शोकों को दूर करके अमृत पद देनेवाले हैं, अर्थात् आप ही अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों प्रकार के उपभोग देते हैं ॥ तात्पर्य्य यह है कि ऋषियों ने शोक-मोह की निवृत्तिरूप मुक्ति पद तथा संसारिक ऐश्वर्य्यों का प्रदाता एकमात्र परमात्मा को ही माना है अर्थात् परमात्मज्ञान से ही शोक-मोह की निवृत्ति होती है, जैसा कि “तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः” जो परमात्मस्वरूप को एकरस, अविनाशी और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य मानता है, उसको कोई शोक-मोह नहीं होता और “तमेव विदित्वातिमृत्युमेति” उसी को जानकर पुरुष मृत्यु से अतिक्रमण कर जाता है, इस वाक्य में परमात्मज्ञान को ही एकमात्र मुक्ति पद का साधन कथन किया गया है, इसलिए जिज्ञासुओं को शोक-मोह की निवृत्ति तथा परमानन्दप्राप्ति के लिए एकमात्र उसी का अवलम्बन करना चाहिए ॥६॥ यह ८१वाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे भगवन् ! (सूरिभ्यः, श्रवः) स्तोतृभ्यो विद्वद्भ्यो यशः (अमृतम्) अमृतम्=मुक्तिं (वसुत्वनम्) श्रेष्ठं धनं तथा (वाजान्) अनेकधाऽन्नानि प्रददातु, तथा च (अस्मभ्यम्, गोमतः) ज्ञानसाधनानि कलाकौशलादीनि (चोदयित्री) सर्वस्य प्रेरयित्रीं शक्तिं (उषाः, मघोनः) उषःकाले यज्ञसाधकं सामर्थ्यं (सूनृतावती) सत्यप्रियभाषण-साधिकां शक्तिं च प्रयच्छतु, तथा (अप, स्रिधः) अस्मत्सकाशात् सन्तापं (उच्छत्) अपनयतु ॥६॥ इत्येकाशीतितमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥