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तच्चि॒त्रं राध॒ आ भ॒रोषो॒ यद्दी॑र्घ॒श्रुत्त॑मम् । यत्ते॑ दिवो दुहितर्मर्त॒भोज॑नं॒ तद्रा॑स्व भु॒नजा॑महै ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tac citraṁ rādha ā bharoṣo yad dīrghaśruttamam | yat te divo duhitar martabhojanaṁ tad rāsva bhunajāmahai ||

पद पाठ

तत् । चि॒त्रम् । राधः॑ । आ । भ॒र॒ । उषः॑ । यत् । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मम् । यत् । ते॒ । दि॒वः॒ । दु॒हि॒तः॒ । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । तत् । रा॒स्व॒ । भु॒नजा॑महै ॥ ७.८१.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:81» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) जो (दीर्घश्रुत्तमम्) घोर अन्धकाररूप अज्ञान है, (तत्) उसको आप दूर करके (चित्रं, राधः, आ, भर) नाना प्रकार का उत्तम धन प्रदान करें और (यत्) जो (ते) तुम्हारा (दिवः, दुहितः) दूर देशों में हित करनेवाला सामर्थ्य है, उससे (मर्तभोजनं) मनुष्यों का भोजनरूप धन (रास्व) दीजिये, ताकि (तत्) वह (भुनजामहै) हमारे उपभोग में आवे ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप महामोहरूप घोर अज्ञान का नाश करके हमें उत्तम ज्ञान की प्राप्ति करायें, जिससे हम अपने भरण-पोषण के लिए धन उपलब्ध कर सकें। हे भगवन् ! कोटानुकोटि ब्रह्माण्डों में आपका सामर्थ्य व्याप्त हो रहा है, आप हमारे पालनकर्ता और नाना प्रकार के ऐश्वर्य्यदाता हैं, कृपा करके हमारे भोजन के लिए अन्नादि धन दें, ताकि हम आपकी उपासना में प्रवृत्त रहें ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) यत् (दीर्घश्रुत्तमम्) घोरान्धकारमिवाज्ञानमस्ति (तत्) तद्भवान् निवर्त्य (चित्रम्, राधः, आ, भर) अनेकविधमुत्तमधनं प्रयच्छतु (यत्) यत् (ते) तव (दिवः, दुहितः) दूरवर्तिदेशानां हितं सामर्थ्यमस्ति, तेन (मर्तभोजनम्) मनुष्येभ्यो भोजनमेव धनं (रास्व) ददातु, यतः (तत्) तद्धनं (भुनजामहै) भोगे उपयुनजामहै ॥५॥