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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

प्रप्रा॒यम॒ग्निर्भ॑र॒तस्य॑ शृण्वे॒ वि यत्सूर्यो॒ न रोच॑ते बृ॒हद्भाः। अ॒भि यः पू॒रुं पृत॑नासु त॒स्थौ द्यु॑ता॒नो दैव्यो॒ अति॑थिः शुशोच ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra-prāyam agnir bharatasya śṛṇve vi yat sūryo na rocate bṛhad bhāḥ | abhi yaḥ pūrum pṛtanāsu tasthau dyutāno daivyo atithiḥ śuśoca ||

पद पाठ

प्रऽप्र॑। अ॒यम्। अ॒ग्निः। भ॒र॒तस्य॑। शृ॒ण्वे॒। वि। यत्। सूर्यः॑। न। रोच॑ते। बृ॒हत्। भाः। अ॒भि। यः। पू॒रुम्। पृत॑नासु। त॒स्थौ। द्यु॒ता॒नः। दैव्यः॑। अति॑थिः। शु॒शो॒च॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:8» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसा राजा सत्कार के योग्य होता और यह राजा कैसों का सत्कार करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुष ! (यत्) जो (अयम्) यह (भरतस्य) धारण वा पोषण करनेवाले के (अग्निः) अग्नि के समान वा (सूर्य, नः) सूर्य के समान (वि, रोचते) विशेष प्रकाशित होता है वा जिसको मैं (प्रप्र, शृण्वे) अच्छे प्रकार सुनता हूँ (यः) जो (बृहत्) बड़े जगत् वा राज्य को तथा (पूरुम्) पालक सेनापति को (अभि, भाः) सब ओर से प्रकाशित करता है तथा (अतिथिः) जाने आने की तिथि जिसकी नियत न हो उसके तुल्य (दैव्यः) विद्वानों ने किया विद्वान् (द्युतानः) प्रकाशमान (पृतनासु) सेनाओं में (तस्थौ) स्थित हो वह (शुशोच) प्रकाशित होता है, उसका आप सदा सत्कार कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो राजा लोग सत्कर्म करनेवालों का ही सत्कार करें और दुष्टाचारियों को दण्ड देवें वे ही सूर्य के तुल्य प्रकाशमान अतिथियों के समान सत्कार करने योग्य होते हुए सर्वदा विजयी होकर प्रसिद्ध कीर्त्तिवाले होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशो राजा सत्कर्त्तव्योऽयं कीदृशान् सत्कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यद्योऽयं भरतस्याऽग्निरिव सूर्यो न विरोचते यमहम्प्रप्र शृण्वे यो बृहत्पूरुमभि भा अतिथिरिव दैव्यो द्युतानः पृतनासु तस्थौ स शुशोच तं त्वं सदैव सत्कुर्याः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रप्र) अतिप्रकर्षः (अयम्) (अग्निः) पावक इव (भरतस्य) धारकस्य पोषकस्य (शृण्वे) (वि) (यत्) यः (सूर्यः) (न) इव (रोचते) प्रकाशते (बृहत्) महज्जगद्राज्यं वा (भाः) प्रकाशयति (अभि) (यः) (पूरुम्) पालकं सेनापतिम् (पृतनासु) सेनासु (तस्थौ) तिष्ठेत् (द्युतानः) देदीप्यमानः (दैव्यः) देवैः कृतो विद्वान् (अतिथिः) अविद्यमाना तिथिर्गमनागमनयोर्यस्य (शुशोच) शोचते प्रकाशते ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये राजानः सत्कर्मकर्त्तॄनेव सत्कुर्य्युर्दुष्टाचारान् दण्डयेयुस्त एव सूर्यवत्प्रकाशमाना अतिथिवत्सत्कर्तव्याः सन्तः सर्वदा विजयिनो भूत्वा प्रसिद्धकीर्त्तयो भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे राजे सत्कर्म करणाऱ्यांचाच सत्कार करतात व दुराचारी लोकांना दंड देतात तेच सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होऊन अतिथीप्रमाणे सत्कार करण्यायोग्य असतात व सदैव विजयी बनून प्रसिद्ध व कीर्तिमान होतात. ॥ ४ ॥