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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

अ॒यमु॒ ष्य सुम॑हाँ अवेदि॒ होता॑ म॒न्द्रो मनु॑षो य॒ह्वो अ॒ग्निः। वि भा अ॑कः ससृजा॒नः पृ॑थि॒व्यां कृ॒ष्णप॑वि॒रोष॑धीभिर्ववक्षे ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam u ṣya sumahām̐ avedi hotā mandro manuṣo yahvo agniḥ | vi bhā akaḥ sasṛjānaḥ pṛthivyāṁ kṛṣṇapavir oṣadhībhir vavakṣe ||

पद पाठ

अ॒यम्। ऊँ॒ इति॑। स्यः। सुऽम॑हान्। अ॒वे॒दि॒। होता॑। म॒न्द्रः। मनु॑षः। य॒ह्वः। अ॒ग्निः। वि। भाः। अ॒क॒रित्य॑कः। स॒सृ॒जा॒नः। पृ॒थि॒व्याम्। कृ॒ष्णऽप॑विः। ओष॑धीभिः। व॒व॒क्षे॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:8» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (विभाः) प्रकाश करनेवाला (यह्वः) बड़ा (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (ओषधीभिः) सोमलतादि ओषधियों से (ववक्षे) प्राप्त करता है, वैसे (कृष्णपविः) तीक्ष्ण काट करनेवाले शस्त्र अस्त्रों से युक्त (होता) दानशील (मन्द्रः) आनन्द करानेवाला (सुमहान्) शुभ गुणकर्मों से सत्कार करने योग्य (मनुषः) मनुष्य विद्वानों से (अवेदि) जाना जाता है (स्यः) वह (अयम्) यह (उ) ही (पृथिव्याम्) पृथिवी पर सब को सुख से (ससृजानः) संयुक्त करता हुआ सबकी उन्नति (अकः) करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के तुल्य उपकारक होते हैं, वे ही अच्छे प्रकार सत्कार पाने योग्य होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा विभा यह्वोऽग्निरोषधीभिर्ववक्षे तथा कृष्णपविर्होता मन्द्रः सुमहान् मनुषो विद्वद्भिरवेदि स्योऽयमु पृथिव्यां सर्वान् सुखेन ससृजानः सन् सर्वेषामुन्नतिमकः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (उ) (स्यः) सः (सुमहान्) शुभैर्गुणकर्मभिः पूजनीयः (अवेदि) विद्यते (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दयिता (मनुषः) मनुष्यः (यह्वः) महान् (अग्निः) पावक इव (वि) (भाः) यो भाति (अकः) करोति (ससृजानः) स्रष्टा सन् (पृथिव्याम्) भूमौ (कृष्णपविः) कृष्णो विलेखः पविः शस्त्रास्त्रसमूहो यस्य (ओषधीभिः) सोमलतादिभिः (ववक्षे) वहति ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवदुपकारका भवन्ति त एव सुष्ठु पूज्या जायन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे उपकारक असतात तेच चांगल्या प्रकारे सत्कार प्राप्त करण्यायोग्य असतात. ॥ २ ॥