पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (दिवः अन्तेषु) द्युलोकपर्यन्त प्रदेशों में (अक्तून्) सूर्यादि प्रकाशों के (न) समान (विशः अञ्जते) सम्पूर्ण प्रजाओं को प्रकट करते (वि) भले प्रकार (उषसः युक्ताः) प्रकाशयुक्त (यतन्ते) कर रहे हैं, (ते गावः) तुम्हारा ज्ञानरूप प्रकाश (तमः) अज्ञानरूप तम को (आ) भले प्रकार (वर्तयन्ति) दूर करता है, (सविता इव बाहू) सूर्य्य की किरणों के समान (ज्योतिः) तुम्हारी ज्योति (सं यच्छन्ति) सबको प्रकाशित करती है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप द्युलोकपर्य्यन्त सम्पूर्ण प्रजाओं को अपनी दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर रहे हैं अर्थात् आप अपने ज्ञानरूप तप से प्रजाओं को रचकर सूर्य्य की किरणों के समान अज्ञानरूप तम को छिन्न-भिन्न करके मनुष्यों को ज्ञानयुक्त बनाते हैं, जैसा कि “यस्य ज्ञानमयं तपः” इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में उसी मन्त्र को आश्रय करके कहा है कि उस परमात्मा का ज्ञान ही एक प्रकार का तप है, उसी ज्ञानरूप तप से परमात्मा इस ब्रह्माण्ड की रचना करके सबको यथावस्थित नियम में चला रहे हैं ॥२॥