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व्यु१॒॑षा आ॑वः प॒थ्या॒३॒॑ जना॑नां॒ पञ्च॑ क्षि॒तीर्मानु॑षीर्बो॒धय॑न्ती । सु॒सं॒दृग्भि॑रु॒क्षभि॑र्भा॒नुम॑श्रे॒द्वि सूर्यो॒ रोद॑सी॒ चक्ष॑सावः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vy uṣā āvaḥ pathyā janānām pañca kṣitīr mānuṣīr bodhayantī | susaṁdṛgbhir ukṣabhir bhānum aśred vi sūryo rodasī cakṣasāvaḥ ||

पद पाठ

वि । उ॒षाः । आ॒वः॒ । प॒थ्या॑ । जना॑नाम् । पञ्च॑ । क्षि॒तीः । मानु॑षीः । बो॒धय॑न्ती । सु॒स॒न्दृक्ऽभिः॑ । उ॒क्षऽभिः॑ । भा॒नुम् । अ॒श्रे॒त् । वि । सूर्यः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । चक्ष॑सा । आ॒व॒रित्या॑वः ॥ ७.७९.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:79» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब परमात्मा की स्वयंप्रकाशता का कथन करते हुए उसी से अज्ञाननिवृत्ति का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यः) स्वतःप्रकाश परमात्मा (रोदसी) पृथ्वी तथा द्युलोक के मध्य में (चक्षसा) अपने प्रकाश से (आवः) सबको प्रकाशित करता हुआ (वि उषाः) अपने विशेष ज्ञान से (पञ्च जनानां) पाँचों प्रकार के मनुष्यों को (क्षितीः) इस पृथ्वी पर (मानुषीः) मनुष्यता का (बोधयन्ती) उपदेश कर रहा है, जो (आवः पथ्या) सबके लिए विशेषरूप से पथ्य है। हम सब प्रजाजनों का (वि) विशेषता से मुख्य कर्तव्य है कि हम (उक्षभिः) अत्यन्तबलयुक्त (सुसंदृग्भिः) अपने सत्यज्ञान से (भानुं अश्रेत्) उस स्वयंप्रकाश को आश्रयण करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - वह पूर्ण परमात्मा अपनी दिव्य ज्योति से सम्पूर्ण भूमण्डल को प्रकाशित करता हुआ अपने विशेष ज्ञान से “पञ्चजना”=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और दस्यु इन पाँचों प्रकार के मनुष्यों को सत्यज्ञान का उपदेश कर रहा है, जो सबके लिए परम उपयोगी है। हमारा कर्तव्य है कि हम यत्नपूर्वक उस स्वतःप्रकाश परमात्मा के स्वरूप को जानकर उसी का आश्रयण करें ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ स्वयंप्रकाशपरमात्मनः सकाशादज्ञान- निवृत्तिर्वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यः) स्वतःप्रकाशः परमात्मा (रोदसी) पृथ्व्यन्तरिक्षयोर्मध्ये (चक्षसा) स्वप्रकाशेन (आवः) सर्वं प्रकाशयन् (वि उषाः) स्वविशेषज्ञानेन (पञ्च जनानाम्) पञ्चविधानपि मनुष्यान् (क्षितीः) भूमौ (मानुषीः) मनुष्यताम् (बोधयन्ती) उपदिशति, यः (आवः पथ्या) सर्वेभ्यो विशेषेण पथ्यो हितकरोऽस्ति, अस्माभिः प्रजाभिः (वि) विशेषतया कर्तव्यमस्ति यद्वयम् (उक्षभिः) अत्यन्तबलवता (सुसन्दृग्भिः) स्वसत्यज्ञानेन (भानुम् अश्रेत्) तं स्वप्रकाशमाश्रयेम ॥१॥