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अचे॑ति दि॒वो दु॑हि॒ता म॒घोनी॒ विश्वे॑ पश्यन्त्यु॒षसं॑ विभा॒तीम् । आस्था॒द्रथं॑ स्व॒धया॑ यु॒ज्यमा॑न॒मा यमश्वा॑सः सु॒युजो॒ वह॑न्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aceti divo duhitā maghonī viśve paśyanty uṣasaṁ vibhātīm | āsthād rathaṁ svadhayā yujyamānam ā yam aśvāsaḥ suyujo vahanti ||

पद पाठ

अचे॑ति । दि॒वः । दु॒हि॒ता । म॒घोनी॑ । विश्वे॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । उ॒षस॑म् । वि॒ऽभा॒तीम् । आ । अ॒स्था॒त् । रथ॑म् । स्व॒धया॑ । यु॒ज्यमा॑नम् । आ । यम् । अश्वा॑सः । सु॒ऽयुजः॑ । वह॑न्ति ॥ ७.७८.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:78» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुयुजः) सुन्दर दीप्तिवाली परमात्मशक्तियें (अश्वासः) शीघ्र गतिद्वारा (यं रथं) जिस रथ को (आ) भले प्रकार (वहन्ति) चलाती हैं, उससे (युज्यमानं) जुड़ी हुई (दिवः दुहिता) द्युलोक की दुहिता (उषसं) उषा को (विश्वे पश्यन्ति) सब लोग देखते हैं जो (अचेति) दिव्यज्योतिसम्पन्न (मघोनी) ऐश्वर्य्यवाली (विभातीं) प्रकाशयुक्त (स्वधया) अन्नादि पदार्थों से सम्पन्न और जो (आ) भले प्रकार (अस्थात्) दृढ़तावाली है ॥४॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र का आशय यह है कि इस ब्रह्माण्डरूपी रथ को परमात्मा की दिव्यशक्तियें चलाती हैं। उसी रथ में जुड़ी हुई द्युलोक की दुहिता उषा को विज्ञानी लोग देखते हैं, जो अन्नादि ऐश्वर्य्यसम्पन्न बड़ी दृढ़तावाली है। इस शक्ति को देखकर विज्ञानी महात्मा इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा का अनुभव करते हुए उसी की उपासना में प्रवृत्त होकर अपने जीवन को सफल करते और परमात्मा की अचिन्त्यशक्तियों को विचारते हुए उसी में संग्लन होकर अमृतभाव को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुयुजः) सुष्ठुदीप्तिमत्यः परमात्मशक्तयः (अश्वासः) तीक्ष्णगत्या (यम् रथम्) यं स्यन्दनं (आ) सम्यक् (वहन्ति) गमयन्ति, ताभिः (युज्यमानम्) सम्मिलितां (दिवः दुहिता) द्युलोकस्य दुहितरं (उषसम्) उषसं (विश्वे पश्यन्ति) सर्वेऽवलोकन्ते, या (अचेति) दिव्यज्योतिःसम्पन्ना (मघोनी) ऐश्वर्ययुक्ता (विभातीम्) प्रकाशमाना (स्वधया) अन्नादिविविधपदार्थसम्पन्ना तथा या (आ) सम्यक् (अस्थात्) दृढतया तिष्ठति ॥४॥