पदार्थान्वयभाषाः - (उषसः) ज्ञानस्वरूप परमात्मा (ज्योतिः यच्छन्तीः) ज्ञान का प्रकाश करता हुआ (विभातीः) प्रकाशित होता और उसका ज्ञान (प्रति) मनुष्यों के प्रति (पुरस्तात् अदृश्रन्) सबसे पूर्व देखा जाता है। (एताः त्याः) ये परमात्मशक्तियें (सूर्यं यज्ञं अग्निं) सूर्य यज्ञ तथा अग्नि को (अजीजनन्) उत्पन्न करती (उ) और (अजुष्टं तमः) अप्रिय तम को (अपाचीनं) दूर करके (अगात्) ज्ञानरूप प्रकाश का विस्तार करती हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानस्वरूप परमात्मा का ज्ञान सबसे पूर्व देखा जाता है। वह अपने ज्ञान का विस्तार करके पीछे प्रकाशित होता है, क्योंकि उसके जानने के लिए पहले ज्ञान की आवश्कता है और उसी परमात्मा से सूर्य्य-चन्द्रादि दिव्य ज्योतियाँ उत्पन्न होतीं, उसी से यज्ञ का प्रादुर्भाव होता और उसी से अग्नि आदि तत्त्व उत्पन्न होते हैं। वही परमात्मा अज्ञानरूप तम का नाश करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अपने ज्ञानरूप प्रकाश का विस्तार करता है, इसलिए सबका कर्तव्य है कि उसी ज्ञानस्वरूप परमात्मा को प्राप्त होकर ज्ञान की वृद्धि द्वारा अपने जीवन को उच्च बनावें ॥३॥