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अन्ति॑वामा दू॒रे अ॒मित्र॑मुच्छो॒र्वीं गव्यू॑ति॒मभ॑यं कृधी नः । या॒वय॒ द्वेष॒ आ भ॑रा॒ वसू॑नि चो॒दय॒ राधो॑ गृण॒ते म॑घोनि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

antivāmā dūre amitram ucchorvīṁ gavyūtim abhayaṁ kṛdhī naḥ | yāvaya dveṣa ā bharā vasūni codaya rādho gṛṇate maghoni ||

पद पाठ

अन्ति॑ऽवामा । दू॒रे । अ॒मित्र॑म् । उ॒च्छ॒ । उ॒र्वीम् । गव्यू॑तिम् । अभ॑यम् । कृ॒धि॒ । नः॒ । य॒वय॑ । द्वेषः॑ । आ । भ॒र॒ । वसू॑नि । चो॒दय॑ । राधः॑ । गृ॒ण॒ते । म॒घो॒नि॒ ॥ ७.७७.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:77» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

अब उक्त ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मा से शत्रुनिवारण तथा सब प्रकार के ऐश्वर्य्यप्राप्ति की प्रार्थना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (अन्तिवामा) आप हमें अन्न तथा पशुओं से सम्पन्न करें अर्थात् प्रशस्तसमृद्धियुक्त करें। “वाम इति प्रशस्तनामसु पठितम्” निघण्टु ३।८॥ (अमित्रं दूरे उच्छ) हमारे शत्रुओं को हमसे दूर करें, (उर्वीं गव्यूतिम्) विस्तृत पृथ्वी का हमको अधिपति बनावें, (नः) हमको (अभयं कृधि) भयरहित करें, (मघोनि) हे दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवन् ! (गृणते) आप अपने उपासकों को (राधः) ऐश्वर्य्य की ओर (चोदय) प्रेरित करें और (यवय द्वेषः) हमारे द्वेष दूर करके (वसूनि आ भर) सम्पूर्ण धनों से हमें परिपूर्ण करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे सब धनों से परिपूर्ण तथा ऐश्वर्य्यसम्पन्न स्वामिन् ! आप हमें अन्न तथा गवादि पशुओं का स्वामी बनावें, आप हमें विस्तीर्ण भूमिपति बनावें, हमारे शत्रुओं को हमसे दूर करके सब संसार का हमें मित्र बनावें अर्थात् द्वेषबुद्धि को हमसे दूर करें, जिससे कोई भी हमसे शत्रुता न करे। अधिक क्या, आप उपासकों को शीलसम्पन्न करें, सब प्रकार का धन दें, जिससे हम लोग निरन्तर आपकी उपासना तथा आज्ञापालन में तत्पर रहें ॥४॥
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आर्यमुनि

अथ पूर्वाभिहितमैश्वर्यसम्पन्नपरमात्मानं स्वशत्रूनपनेतुं तथा सर्वविधमैश्वर्यं लब्धुं च प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (अन्ति वामा) भवान् मामन्नैः पशुभिश्च समृद्धं कुरुतां (अमित्रम् दूरे उच्छ) मच्छत्रूंश्च अपनय (उर्वीम् गव्यूतिम्) मां विस्तृतभूम्यधिपतिं करोतु (नः)अस्मान् (अभयम् कृधि) निर्भीकान् कुरु (मघोनि) हे दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवन् ! (गृणते) भवान् स्वाश्रितान् (राधः) ऐश्वर्याभिमुखं (चोदय) प्रेरयतु तथा च (यवय द्वेषः) अस्माकं द्वेषमपहत्य (वसूनि आभर) अखिलैर्धनैरस्मान् संवर्धयतु ॥४॥