अब उषःकाल में अनुष्ठान का विधान करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (उषः बुधः) उषःकाल में जागनेवाले (वसिष्ठाः) विद्वान् ! (स्तोमैः) यज्ञों द्वारा (त्वा प्रति) तेरे लिये (ईळते) स्तुति करते हैं, (सुभगे) हे सौभाग्य के देनेवाली ! (गवां नेत्री) तू इन्द्रियों को संयम में रखने के कारण (तुस्तुवांसः) स्तुतियोग्य है, (वाजपत्नी) हे सब प्रकार के ऐश्वर्य्य की स्वामिनी ! (जरस्व) अन्धकार को जलाकर (नः) हमारे लिये (उच्छ उषः) अच्छा प्रकाश कर, क्योंकि तू (प्रथमा) सब दीप्तियों में मुख्य (सुजाते) सुन्दर प्रादुर्भाववाली है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में रूपकालङ्कार से उषःकाल का वर्णन करते हुए परमात्मा उपदेश करते हैं जो पुरुष उषःकाल में उठकर सन्ध्यावन्दन तथा हवनादि अनुष्ठानार्ह कार्यों में प्रतिदिन प्रवृत्त रहते हैं, वे सब धनों के देनेवाली तथा इन्द्रियसंयम का मुख्यसाधनरूप उषःकाल से परम लाभ उठाते हैं अर्थात् जो पुरुष अपनी निद्रा त्याग उषःकाल में उठकर अपने नित्यकर्मों में प्रवृत्त होते हैं, वे सौभाग्यशाली पुरुष इन्द्रियों का संयम करते हुए ऐश्वर्य्यशाली होकर सब प्रकार का सुख भोगते हैं, क्योंकि इन्द्रियसंयम का मुख्य साधन उषःकाल में ब्रह्मोपासन है, इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि जब पूर्वदिशा में सूर्य्य की लाली उदय हो, उसी काल में ब्रह्मोपासनरूप अनुष्ठान करें ॥६॥