वांछित मन्त्र चुनें

तानीदहा॑नि बहु॒लान्या॑स॒न्या प्रा॒चीन॒मुदि॑ता॒ सूर्य॑स्य । यत॒: परि॑ जा॒र इ॑वा॒चर॒न्त्युषो॑ ददृ॒क्षे न पुन॑र्य॒तीव॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tānīd ahāni bahulāny āsan yā prācīnam uditā sūryasya | yataḥ pari jāra ivācaranty uṣo dadṛkṣe na punar yatīva ||

पद पाठ

तानि॑ । इत् । अहा॑नि । ब॒हु॒लानि॑ । आ॒स॒न् । या । प्रा॒चीन॑म् । उत्ऽइ॑ता॒ । सूर्य॑स्य । यतः॑ । परि॑ । जा॒रःऽइ॑व । आ॒ऽचर॒न्ती । उषः॑ । द॒दृ॒क्षे । न । पुनः॑ । य॒तीऽइ॑व ॥ ७.७६.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:76» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तानि इत् अहानि) वह दिन के समान प्रकाशरूप (बहुलानि) अनेक प्रकार के तेज (आसन्) दृष्टिगत होते हैं, (या) जो (सूर्यस्य) स्वतःप्रकाश परमात्मा के (प्राचीनं) प्राचीन स्वरूप को (उदिता) प्राप्त है, (यतः) जिससे (परिजार इव) अग्नि के समान (उषः) तेज (आचरन्ती) निकलते हुए (ददृक्षे) देखे जाते हैं, (यतीव) व्यभिचारी पदार्थों के समान (पुनः न) फिर नहीं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार अग्नि से सहस्रों प्रकार की ज्वालायें उत्पन्न होती रहती हैं, इसी प्रकार स्वतःप्रकाश परमात्मा के स्वरूप से तेज की रश्मियें सदैव देदीप्यमान होती रहती हैं, या यों कहो कि स्वतः-प्रकाश परमात्मा की ज्योति सदैव प्रकाशित होती रहती है। जैसे पदार्थों के अनित्य गुण उन पदार्थों से पृथक् हो जाते वा नाश को प्राप्त हो जाते हैं, इस प्रकार परमात्मा के प्रकाशरूप गुण का उससे कदापि वियोग नहीं होता अर्थात् परमात्मा के गुण विकारी नहीं, यह इस मन्त्र का भाव है ॥३॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तानि इत् अहानि) तानि दिनानीव प्रकाशमयानि (बहुलानि) नैकधा तेजांसि (आसन्) दृष्टिपथे प्रादुर्भवन्ति (या) यानि (सूर्यस्य) स्वतःप्रकाशस्य परमात्मनः (प्राचीनम्) प्राचीनस्वरूपं (उदिता) प्राप्तानि (यतः) यस्मात् (परि जार इव) अग्निसदृशानि (उषः) तेजांसि (आचरन्ती) निर्गच्छन्ति (ददृक्षे) दृश्यन्ते (यतीव) व्यभिचारपदार्था इव (पुनर्न) न सन्ति पुनः ॥३॥