अब उषा=ब्रह्ममुहूर्त्त में यज्ञकर्मानन्तर परमात्मा की स्तुति करना कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (अमृतं) मुत्युरहित (विश्वजन्यं) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आदि कारण (विश्वानरः) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापक (सविता) सबका उत्पत्तिस्थान (देवः) दिव्यगुणस्वरूप परमात्मा का हम लोग (अश्रेत्) आश्रयण करें, जो (देवानां) विद्वानों को (क्रत्वा) शुभ मार्गों में प्रेरित करके (अजनिष्ट) उत्तम फलों को उत्पन्न करता है, (भुवनं विश्वं) सम्पूर्ण भुवनों का (उषाः) प्रकाशक (उत्) और (आविः चक्षुः) चराचर का चक्षु जो परमात्मदेव है, हम उसकी (अकः) स्तुति करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा की स्तुति वर्णन की गई है कि जो परमात्मदेव सब ब्रह्माण्डों में ओतप्रोत हो रहा है और जो सबका उत्पत्तिस्थान तथा विद्वानों को शुभमार्ग में प्रेरित करनेवाला है, उसी देव का हम सबको आश्रयण करना चाहिए और उसी की उपासना में हमें संलग्न होना चाहिए, जो चराचर का चक्षु और हमारा पितृस्थानीय है ॥ कई एक टीकाकारों ने यहाँ “उषा” को ही सविता तथा देवी माना है, यह उनकी भूल है, क्योंकि ज्योति, अमृत तथा विश्वानर आदि शब्द परमात्मा के ग्राहक तथा वाचक हैं, किसी जड़ पदार्थ के नहीं। दूसरी बात यह है कि उषःकाल में यज्ञादि कर्मों का वर्णन किया गया है, जैसा कि पीछे स्पष्ट है। उसके अनन्तर परमात्मा की स्तुति प्रार्थना करना ही उपादेय है, इसलिए यह मन्त्र परमात्मोपासना का ही वर्णन करता है, किसी जड़ पदार्थ का नहीं ॥१॥