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प्रति॑ द्युता॒नाम॑रु॒षासो॒ अश्वा॑श्चि॒त्रा अ॑दृश्रन्नु॒षसं॒ वह॑न्तः । याति॑ शु॒भ्रा वि॑श्व॒पिशा॒ रथे॑न॒ दधा॑ति॒ रत्नं॑ विध॒ते जना॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prati dyutānām aruṣāso aśvāś citrā adṛśrann uṣasaṁ vahantaḥ | yāti śubhrā viśvapiśā rathena dadhāti ratnaṁ vidhate janāya ||

पद पाठ

प्रति॑ । द्यु॒ता॒नाम् । अ॒रु॒षासः॑ । अश्वाः॑ । चि॒त्राः । अ॒दृ॒श्र॒न् । उ॒षस॑म् । वह॑न्तः । याति॑ । शु॒भ्रा । वि॒श्व॒ऽपिशा॑ । रथे॑न । दधा॑ति । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । जना॑य ॥ ७.७५.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:75» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसं) उषःकाल को (वहन्तः) धारण करता हुआ सूर्य्य (विश्वपिशा) संसार के अन्धकार को मर्दन करनेवाले (शुभ्रा) सुन्दर (रथेन) वेग से (याति) गमन करता और (रत्नं दधाति) रत्नों को धारण करता हुआ (जनाय) मनुष्यों के लिए (विधते) विभाग करता है, (चित्राः अश्वाः) जिसमें विविध वेगवाली किरणें (अदृश्यन्) देखी जाती हैं और जो (प्रतिद्युतानां) प्रत्येक दीप्ति के लिए (अरुषासः) प्रकाश करनेवाली हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - उषःकाल का आश्रय सूर्य्य प्रत्यक्षरूप से नानाप्रकार की किरणों को धारण करता हुआ संसार में अव्याहतगति होकर विचरता और उसकी दीप्ति से नानाप्रकार के ऐश्वर्य्य प्राप्त होते हैं। इनको रत्नों का विभाग करनेवाला कथन किया गया है अर्थात् सूर्य्य के प्रकाश होने पर ही सब प्राणी वर्ग अपना-अपना भरण-पोषण करते और कर्मानुसार रत्नादि धनों की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसम्) उषःकालं (वहन्तः) दधानः सूर्य्यः (याति) गच्छति (शुभ्रा) शोभनेन (विश्वपिशा) सम्पूर्णसंसारस्यान्धकारनाशकेन (रथेन) वेगेन याति। अन्यच्च (जनाय) मनुष्याय (रत्नम्) धनं (विधते) योग्याय विभक्तरूपेण सम्पूर्णं प्रयच्छतीत्यर्थः। यस्मिन् सूर्य्ये (विचित्रा) नानावर्णवन्त्यः (अश्वाः) रश्मयः (अदृश्यन्) दृश्यन्ते ताः (प्रतिद्युतानाम्) प्रत्येकदीप्त्यर्थं (अरुषासः) प्रकाशं कुर्वत्यः ताश्च तदाश्रिता इत्यर्थः ॥६॥