अब उषःकाल में जागृतिवाले पुरुष के लिये फल कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (उषसः) प्रातःकाल की उषा के (चित्राः) जो चित्र (दर्शतायाः) दृष्टिगत होते हैं, (एते त्ये) वे सब (भानवः) सूर्य्य की रश्मियों द्वारा (अमृतासः) अमृतभाव को (आ अगुः) भले प्रकार प्राप्त होते हैं और (दैव्यानि) दिव्य भावों को (जनयन्तः) उत्पन्न करते हुए (अन्तरिक्षा वि अस्थुः) एक ही अन्तरिक्ष में बहुत प्रकार से स्थिर होकर (व्रतानि आपृणन्तः) व्रतों को धारण करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - “उषा” सूर्य्य की रश्मियों का एक पुञ्ज है। जब वे रश्मियाँ इकठ्ठी होकर पृथिवीतल पर पड़ती हैं, तब एक प्रकार का अमृतभाव उत्पन्न करती हुई कई प्रकार के व्रत धारण कराती हैं अर्थात् नियमपूर्वक सन्ध्या करनेवाले उषःकाल में सन्ध्या के व्रत को और नियम से हवन करनेवाले हवनव्रत को धारण करते हैं। इसी प्रकार सूर्य्योदय होने पर प्रजाजन नानाप्रकार के व्रत धारण करके अमृतभाव को प्राप्त होते हैं, अत एव मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रातः उषःकाल में अपने व्रतों को पूर्ण करे, व्रतों का पूर्ण करना ही अमृतभाव को प्राप्त होना है ॥ या यों कहो कि जिस प्रकार विराट् स्वरूप में सूर्य्य-चन्द्रमादि अपने उदय-अस्तरूप व्रतों को नियमपूर्वक पालन करते हैं, इसी प्रकार अमृतभाव को प्राप्त होनेवाले जिज्ञासु को अपने व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। जो उषःकाल में उठकर अपने नियम-व्रतों का पालन करते हैं, वे ही अमृत को प्राप्त होकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य नहीं ॥३॥