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व्यु१॒॑षा आ॑वो दिवि॒जा ऋ॒तेना॑विष्कृण्वा॒ना म॑हि॒मान॒मागा॑त् । अप॒ द्रुह॒स्तम॑ आव॒रजु॑ष्ट॒मङ्गि॑रस्तमा प॒थ्या॑ अजीगः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vy uṣā āvo divijā ṛtenāviṣkṛṇvānā mahimānam āgāt | apa druhas tama āvar ajuṣṭam aṅgirastamā pathyā ajīgaḥ ||

पद पाठ

वि । उ॒षाः । आ॒वः॒ । दि॒वि॒ऽजाः । ऋ॒तेन॑ । आ॒विः॒ऽकृ॒ण्वा॒ना । म॒हि॒मान॑म् । आ । अ॒गा॒त् । अप॑ । द्रुहः॑ । तमः॑ । आ॒वः॒ । अजु॑ष्टम् । अङ्गि॑रःऽतमा । प॒थ्याः॑ । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥ ७.७५.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:75» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब परमात्मा की महिमा का वर्णन करते हुए उषा=ब्रह्ममुहूर्त्तकाल में ब्रह्मोपासना का विधान कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (उषाः) उषा=ब्रह्ममुहूर्त्तकाल के सूर्य्य का विकाश (दिविजाः) अन्तरिक्ष को प्रकाशित करता हुआ (ऋतेन) अपने तेज से (आविष्कृण्वाना) प्रकट होकर (महिमानम् आ अगात्) परमात्मा की महिमा को दिखलाता और (वि) विशेषतया (तमः) अन्धकार को (अपद्रुहः) दूर करता हुआ (आवः) प्रकाशित होकर (अङ्गिरस्तमा) मनुष्यों में आलस्य को निवृत्त करके (अजुष्टं) परमात्मा के साथ जोड़ता हुआ (पथ्याः अजीगः) पथ्य=शुभमार्ग का प्रेरक होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा की महिमा वर्णन करते हुए यह उपदेश किया है कि हे सांसारिक जनों ! तुम सूर्य्य द्वारा परमात्मा की महिमा का अनुभव करते हुए उनके साथ अपने आपको जोड़ो अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त्तकाल में जब सूर्य्य द्युलोक को प्रकाशित करता हुआ अपने तेज से उदय होता है, उस काल में मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि वह आलस्य को त्याग कर परमात्मा की महिमा को अनुभव करते हुए ऋत=सत्य के आश्रित हों, उस महान् प्रभु की उपासना में संलग्न हों और याज्ञिक लोग उसी काल में यज्ञों द्वारा परमात्मा का आह्वान करें अर्थात् मनुष्यमात्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें, जिससे सब प्राणी परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हुए सुखपूर्वक अपने जीवन को व्यतीत करें। यह परमात्मा का उच्च आदेश है ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनो महत्त्वं वर्णयन् ब्रह्ममुहूर्ते ब्रह्मोपासनं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (उषाः) ब्रह्ममुहूर्तकाले सूर्यस्य विकाशः (दिविजाः) अन्तरिक्षं प्रकाशयन् (ऋतेन) स्वतेजसा (आविष्कृण्वाना) प्रकटो भूत्वा (महिमानम् आ अगात्) परमात्मनो महिमानं दर्शयन् तथा (वि) विशेषतया (तमः) अन्धकारं (अपद्रुहः) दूरीकुर्वन् (आवः) प्रकाशितो भूत्वा (अङ्गिरस्तमा) मनुष्याणामालस्यं निवर्तयन् (अजुष्टं) परमात्मना योजयन् (पथ्याः अजीगः) पथ्याय शुभमार्गाय प्रेरयति ॥१॥