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प्र ये य॒युर॑वृ॒कासो॒ रथा॑ इव नृपा॒तारो॒ जना॑नाम् । उ॒त स्वेन॒ शव॑सा शूशुवु॒र्नर॑ उ॒त क्षि॑यन्ति सुक्षि॒तिम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra ye yayur avṛkāso rathā iva nṛpātāro janānām | uta svena śavasā śūśuvur nara uta kṣiyanti sukṣitim ||

पद पाठ

प्र । ये । य॒युः । अ॒वृ॒कासः । रथाः॑ऽइव । नृ॒ऽपा॒तारः । जना॑नाम् । उ॒त । स्वेन॑ । शव॑सा । शू॒शु॒वुः॒ । नरः॑ । उ॒त । क्षि॒य॒न्ति॒ । सु॒ऽक्षि॒तिम् ॥ ७.७४.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:74» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो यजमान (अवृकासः) कुटिलताओं को छोड़कर (प्रययुः) वेदमार्ग को प्राप्त होते हैं, वे (नृपातारः रथा इव) राजाओं के रथ के समान सुशोभित होते (उत) और (जनानां) प्रजाओं को (स्वेन) अपने (शवसा) यश से (शूशुवुः) सुशोभित करते हैं (उत) और (नराः) वे ही मनुष्य (सुक्षितिं क्षियन्ति) उत्तम भूमि को प्राप्त होते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो यजमान वेदमर्यादा पर चलते हुए अपने ऐश्वर्य्य को बढ़ाते हैं, वे विजयप्राप्त राजाओं के रथ के समान सुशोभित होते हैं अर्थात् जब राजा विजयी होकर अपने देश को आता है, उस समय उसकी प्रजा उसका मान हार्दिक भावों से करती है, इसी प्रकार प्रजा उन नरों का सत्कार अपने हार्दिक भावों से करती है। जो विद्वानों से उत्तम शिक्षा प्राप्त करके तदनुकूल अपने आचरण करते हैं, वे ही अपने यश से सुशोभित होकर प्रजा को सुशोभित करते और वे ही उत्तम भूमि को प्राप्त होते हैं ॥६॥ यह ७४वाँ सूक्त और २१वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) ये यजमानाः (अवृकासः) सरलप्रकृतयः सन्तः (प्रययुः) वेदमार्गं प्राप्ताः, अन्यच्च (नृपातारः) नृणां रक्षितारः (रथा इव) यानानीव (उत) अन्यच्च (जनानाम्) प्रजानां (स्वेन) स्वेन (शवसा) यशसा (शूशुवुः) सुशोभते (उत) अपरं च त एव नराः (सुक्षितिम्) सुभूमिं (क्षियन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥६॥ इति चतुःसप्ततितमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥