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अप॒ स्वसु॑रु॒षसो॒ नग्जि॑हीते रि॒णक्ति॑ कृ॒ष्णीर॑रु॒षाय॒ पन्था॑म् । अश्वा॑मघा॒ गोम॑घा वां हुवेम॒ दिवा॒ नक्तं॒ शरु॑म॒स्मद्यु॑योतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apa svasur uṣaso nag jihīte riṇakti kṛṣṇīr aruṣāya panthām | aśvāmaghā gomaghā vāṁ huvema divā naktaṁ śarum asmad yuyotam ||

पद पाठ

अप॑ । स्वसुः॑ । उ॒षसः॑ । नक् । जि॒ही॒ते॒ । रि॒णक्ति॑ । कृ॒ष्णीः । अ॒रु॒षाय॑ । पन्था॑म् । अश्व॑ऽमघा । गोऽम॑घा । वा॒म् । हु॒वे॒म॒ । दिवा॑ । नक्त॑म् । शरु॑म् । अ॒स्मत् । यु॒यो॒त॒म् ॥ ७.७१.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:71» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब इस सूक्त में ब्राह्ममुहूर्त्तकाल में उपदेश श्रवण करने का विधान करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वामघा गोमघा) हे अश्व तथा गोरूप धनसम्पन्न (वां) अध्यापक तथा उपदेशको ! हम आपसे (हुवेम) प्रार्थना करते हैं कि आप (दिवा नक्तं) दिन-रात्रि (अस्मत्) हमसे (शरुं) हिंसारूप पाप को (युयोतं) दूर करें (अप) और जिस समय (कृष्णीः) रात्रि (स्वसुः उषसः) अपनी उषारूप पुत्री का (नक् अप जिहीते) त्याग करके (अरुषाय पन्थां रिणक्ति) सूर्य्य के लिए मार्ग देती है, उस समय उपदेश करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे प्रजाजनों ! तुम उन ऐश्वर्य्यसम्पन्न अध्यापक तथा उपदेशकों से यह प्रार्थना करो कि आप अपने सदुपदेशों द्वारा हमको पवित्र करते हुए हिंसारूप पापपङ्क को हमसे सदैव के लिए छुड़ाकर शुद्ध करें और हे विद्वानों ! आप हम लोगों को उषःकाल=ब्राह्ममुहूर्त्त में उपदेश करें, जिस समय प्रकृति का सम्पूर्ण सौन्दर्य्य अपनी नूतन अवस्था को धारण करता और जिस समय पक्षीगण मधुरस्वर से अपने-अपने भावों द्वारा जगन्नियन्ता जगदीश के भावों को प्रकाशित करते हैं ॥ तात्पर्य्य यह है कि उत्तम शिक्षा ग्रहण करने के लिए ब्राह्म मुहूर्त्त ही अत्युत्तम काल है, क्योंकि रात्रि के विश्राम के अनन्तर उस समय बुद्धि निर्मल होने के कारण सूक्ष्म विषय को भी ग्रहण करने में समर्थ होती है, इसीलिए वेद भगवान् ने आज्ञा दी है कि तुम ब्राह्म मुहूर्त्त में उपदेश श्रवण करो ॥१॥
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आर्यमुनि

अस्मिन् सूक्ते ब्राह्मे मुहूर्ते उपदेशश्रवणस्य विधानं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वामघा गोमघा) हे अश्वगोरूपधनसम्पन्नौ (वाम्) अध्यापकोपदेशकौ ! वयं युवां (हुवेम) प्रार्थयामहे यद्युवां (दिवा नक्तम्) अहर्निशं (शरुम्) हिंसारूपं पापं (अस्मत्) अस्मत्तः (युयोतम्)  दूरीकुरुतम्, अन्यच्च यदा (कृष्णीः) रात्रिः (स्वसुः उषसः) आत्मनः उषोरूपायाः पुत्र्याः (नक् अप जिहीते) त्यागं कृत्वा (अरुषाय) सूर्य्याय (पन्थाम्) मार्गं (रिणक्ति) ददाति, तदैवोपदेशं कुरुतमित्यर्थः ॥१॥