पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे राजपुरुषो ! तुम (त्यं) उस (भुज्युं) भोक्ता सम्राट् को (सखायः) मित्रता की दृष्टि से देखो, (दुरेवासः) जो एक स्थान में रहनेवाले दु:खरूप वास को (जहुः) त्यागकर (समुद्रे, मध्ये) समुद्र के मध्य में गमन करता (उत) और (यः) जो (युवाकुः) तुम लोगों को (निः) निरन्तर (ईम्, अरावा) उत्तम आचरणों की शिक्षा अथवा तुम्हारी रुकावटों को दूर करता हुआ (पर्षत्) तुम्हारी रक्षा करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा शिक्षा देते हैं कि हे न्यायाधीश तथा सेनाधीश राजपुरुषो ! तुम्हारा और प्रजा का वही सम्राट् सच्चा मित्र हो सकता है, जो किसी रुकावट के बिना समुद्र में यात्रा करता हुआ देश-देशान्तरों का परिभ्रमण करके अपने राज्य को उन्नत करता, अपनी प्रजा तथा राजकीय सैनिक पुरुषों में धार्मिक भावों का संचार करता और उनके सब दु:ख तथा रुकावटों को दूर करके प्रेमपूर्वक वर्तता है। “दुरेवास: जहु:” के अर्थ दुरवस्था को छोड़ देने के हैं। वास्तव में अपनी दुरवस्था को छोड़ने योग्य वही सम्राट् होता है, जो उद्योगी बनकर समुद्रयात्रा करता हुआ नाना प्रकार के धनोपार्जन करके अपनी प्रजा के दु:ख दूर करता है। आलसी राजा मित्रता के योग्य नहीं, क्योंकि वह प्रजा को पीड़ित करके धन लेता और बड़े-बड़े कर लगाकर राजकीय व्यवहारों की सिद्धि करता है ॥ कई एक टीकाकार इस मन्त्र के अर्थ करते हैं कि ”भुज्यु” नामक एक पुरुष था, जो समुद्र में फेंका गया था। उसको किसी देवताविशेष ने समुद्र से निकाल कर उसकी दुरवस्था को दूर किया, परन्तु यह कथा इस मन्त्र से नहीं निकलती, क्योंकि इसमें न तो किसी देवता का नाम है और न भुज्यु नामक किसी मनुष्य का प्रकरण है, किन्तु “भुज्यु” एक गुणप्रधान पुरुष का नाम है। अर्थात् “ऐश्वर्य्यं भुनक्तीति भुज्यु:”= जो ऐश्वर्य्य का भोक्ता हो, उसको “भुज्यु” कहते हैं। और भली-भाँति ऐश्वर्य्यभोक्ता सम्राट् ही होता है। इसलिए यहाँ सम्राट् के ऐश्वर्य्य का वर्णन है, किसी पुरुषविशेष का नहीं ॥७॥