पदार्थान्वयभाषाः - (वां) हम लोग (माध्वी) संसार में मधुरता फैलानेवाले (एषः) इस (हव्यं) होम को (सख्ये) मित्र के सम्मुख (पूर्वगत्वा, इव) भेंट के समान (रातः) आपको अर्पण करते हैं, जो (निधिः, हितः) आरोग्यता का देनेवाला है, (स्यः) आप इसको (मानुषीषु, विक्षु) मनुष्यप्रजाओं में (आ, यातं) सर्वत्र विस्तृत करें, (अस्मे) हमारी इस भेंट को (अहेळता) शान्त (मनसा) मन से (अर्वाक्, अश्नन्ता) हमारे सम्मुख स्वीकार करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा से यह प्रार्थना है कि हे देव ! जिस प्रकार अपने स्वामी वा मित्र के सम्मुख नैवेद्य रक्खा जाता है, इसी प्रकार हमलोग इस आहुतिरूप हव्य को, जो नीरोगता की निधि तथा मनुष्यमात्र का हितकारक है, आपके संमुख रखते हैं, आप कृपा करके इसको स्वीकार करें और सब प्राणिवर्ग में तुरन्त पहुँचा दें, ताकि वह विकारों से दूषित न हो ॥ तात्पर्य्य यह है कि मनुष्य अपने किये हुए यज्ञादि शुभ कर्मों को सदा ईश्वरार्पण करे और उनके फल की इच्छा न करता हुआ ईश्वराधीन छोड़ दें, शास्त्र में इसी का नाम निष्काम कर्म है। निष्कामकर्मी ही सिद्धि को प्राप्त होते और इन्हीं को शास्त्र में अमृत की प्राप्ति वर्णन की है, इसलिए सब आर्यों का कर्तव्य है कि जो सन्ध्या, अग्निहोत्र, जप, तप, दान तथा अनुष्ठानादि कर्म करे, वह सब ईश्वरार्पण करते हुए निष्काम भाव से करे, यह वेद भगवान् की आज्ञा है ॥७॥