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देवता: सूर्यः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पुरउष्णिक् स्वर: ऋषभः

तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं शु॒क्रमु॒च्चर॑त् । पश्ये॑म श॒रद॑: श॒तं जीवे॑म श॒रद॑: श॒तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tac cakṣur devahitaṁ śukram uccarat | paśyema śaradaḥ śataṁ jīvema śaradaḥ śatam ||

पद पाठ

तत् । चक्षुः॑ । दे॒वऽहि॑तम् । शु॒क्रम् । उ॒त्ऽचर॑त् । पश्ये॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् । जीवे॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् ॥ ७.६६.१६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:66» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:16


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आर्यमुनि

अब उस सर्वद्रष्टा परमात्मा से प्रार्थना करने का प्रकार कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) वह परमात्मा जो (चक्षुः) सर्वद्रष्टा (देवहितं) विद्वानों का हितैषी (शुक्रं) बलवान् (उच्चरत्) सर्वोपरि विराजमान है, उनकी कृपा से हम (जीवेम, शरदः, शतं) सौ वर्ष पर्य्यन्त प्राणधारण करें और (पश्येम, शरदः, शतं) , सौ वर्ष पर्य्यन्त उसकी महिमा को देखें अर्थात् उसकी उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सर्वप्रकाशक, सबका हितकारी तथा बलस्वरूप परमात्मा ऐसी कृपा करे कि हम सौ वर्ष जीवित रहें और सौ वर्ष तक उसको देखें। यहाँ “पश्येम” के अर्थ आँखों से देखने के नहीं, किन्तु ध्यान द्वारा ज्ञानगोचर करने के हैं, जैसा कि “दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या” कठ० ३।१२॥ इस वाक्य में “दृश्यते” के अर्थ बुद्धि से देखने के हैं अथवा उसकी इस रचनारूप महिमा को देखते हुए उसकी महत्ता का अनुभव करके उपासन में प्रवृत्त हों, यह आशय है ॥ यहाँ विचारणीय यह है कि यही मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है कि “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद: शतं, जीवेम शरद: शतं शृणुयाम शरद: शतं, प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरदः शतात्॥” अर्थात् उपर्युक्त ऋग् मन्त्र में लिखे−“पश्येम शरद: शतं, जीवेम शरद: शतं” तक ही नहीं, किन्तु “शृणुयाम शरद: शतं, प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं०” इत्यादि प्रकार से भिन्न है, जो लोग वेदों पर पुनरुक्त होने का दोष लगाते हैं, उनको इस भेद की ओर ध्यान करना चाहिए कि भिन्नार्थप्रतिपादन में वाक्य कदापि पुनरुक्त नहीं होते, किन्तु भिन्नार्थ के प्रतिपादक प्रकरणभेद वा आकारभेद से होते हैं, जैसा कि “तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत्” यह पाठ ऋग् का है, जिसके अर्थ ऊपर किये गये हैं और “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्” यह पाठ यजुर्वेद का है, जिसका भाव यह है कि हम ऋषि-मुनियों के समान ज्ञानी विज्ञानी होकर देखें, सुनें और जीवें, प्राकृत लोगों के समान नहीं, इस प्रकार वेदों में आकारभेद वा प्रकरणभेद से जो मन्त्र पुन:-पुन: आते हैं, वे पुनरुक्त नहीं हो सकते, इसी प्रकार “सहस्रशीर्षादि” मन्त्र भी पुनरुक्त नहीं ॥१६॥
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आर्यमुनि

अथ सर्वद्रष्टुः परमात्मनः प्रार्थनाप्रकारः कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) ब्रह्म (चक्षुः) सर्वस्य द्रष्टा (देवहितं) देवानां हितकारकं (शुक्रम्) बलस्वरूपं (उच्चरत्) सर्वोपरिविराजमानम्, तत्कृपया वयं (शरदः, शतं, जीवेम) शतवर्षपर्यन्तं जीवेम (शरदः, शतं, पश्येम) तथा शतवर्षपर्यन्तं तन्महिमानमनुभवाम ॥१६॥