पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो विद्वान् (शरदं, मासं) शरद् मास के प्रारम्भिक (अहः, अक्तुं, यज्ञं) दिन-रात के यज्ञ को (ऋचं) ऋग्वेद की ऋचाओं से (वि, दधुः) भले प्रकार करते हैं, वे (अनाप्यं) इस दुर्लभ यज्ञ को करके (वरुणः) सबके पूजनीय (मित्रः) सर्वप्रिय (अर्यमा) न्यायशील तथा (राजानः) दीप्तिमान् होकर (क्षत्रं) क्षात्र धर्म को (आशत) लाभ करते हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः - शरद् ऋतु के प्रारम्भ में जो यज्ञ किया जाता है, उसका नाम “शारद” यज्ञ है। यह यज्ञ रात्रि-दिन अनवरत किया जाता है। जो विद्वान् अनुष्ठानपरायण होकर इस वार्षिक यज्ञ को पूर्ण करते हैं, वे दीप्तिमान् होकर सत्कारार्ह होते हैं ॥ ज्ञात होता है कि जिसका नाम वार्षिक उत्सव है, वह वैदिक समय में शरद् ऋतु के प्रारम्भ में होता था और उस समय सब आर्य्य पुरुष अपने-अपने कर्मों की जाँच पड़ताल किया करते थे। जिस प्रकार नये संवत् के चढ़ने पर अनुष्ठानी तथा सुकर्मी उन्नतिशील पुरुषों को अत्यन्त हर्ष होता है, इसी प्रकार उस समय उत्सव मनाया जाता था और हर्षित हुए आर्य्यपुरुष परमात्मा से प्रार्थना करते थे कि “पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं०”=हे परमात्मन् ! हम सौ वर्ष तक जीवें और कृपा करके आप हमें यावदायुष देखने तथा सुनने की शक्ति प्रदान करें, इत्यादि यह कर्मयोगप्रधान “शारद” यज्ञ अब भी आर्यावर्त्त में “शरत् पूर्णिमादि” उत्सवों द्वारा मनाया जाता है ॥११॥