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दि॒वि क्षय॑न्ता॒ रज॑सः पृथि॒व्यां प्र वां॑ घृ॒तस्य॑ नि॒र्णिजो॑ ददीरन् । ह॒व्यं नो॑ मि॒त्रो अ॑र्य॒मा सुजा॑तो॒ राजा॑ सुक्ष॒त्रो वरु॑णो जुषन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

divi kṣayantā rajasaḥ pṛthivyām pra vāṁ ghṛtasya nirṇijo dadīran | havyaṁ no mitro aryamā sujāto rājā sukṣatro varuṇo juṣanta ||

पद पाठ

दि॒वि । क्षय॑न्ता । रज॑सः । पृ॒थि॒व्याम् । प्र । वा॒म् । घृ॒तस्य॑ । निः॒ऽनिजः॑ । द॒दी॒र॒न् । ह॒व्यम् । नः॒ । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । सुऽजा॑तः । राजा॑ । सु॒ऽक्ष॒त्रः । वरु॑णः । जु॒ष॒न्त॒ ॥ ७.६४.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:64» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब राजसूययज्ञ का निरूपण करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (दिवि, क्षयन्ता) द्युलोक में क्षमता रखनेवाले (पृथिव्याम्) पृथिवीलोक में क्षमता रखनेवाले (रजसः) राजस भावों के जाननेवाले अध्यापक तथा उपदेशक राजा तथा प्रजा को सदुपदेशों द्वारा सुशिक्षित करें और (प्र, वां) उन अध्यापक तथा उपदेशकों के लिए प्रजा तथा राजा लोग (घृतस्य, निर्णिजः) प्रेमभाव का (ददीरन्) दान दें और (नः) हमारे (हव्यम्) राजसूय यज्ञ को (मित्रः) सब के मित्र (अर्य्यमा) न्यायशील (सुजातः) कुलीन (सुक्षत्रः) क्षात्रधर्म के जाननेवाले (वरुणः) सब को आश्रयण करने योग्य राजा लोग (जुषन्त) सेवन करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम द्युलोक तथा पृथिवीलोक की विद्या जाननेवाले अध्यापक तथा उपदेशकों में प्रेमभाव धारण करो और राजसूय यज्ञ के रचयिता जो क्षत्रिय लोग हैं, उनका प्रीति से सेवन करो, ताकि तुम्हारे राजा का पृथिवी तथा द्युलोक के मध्य में सर्वत्र ऐश्वर्य विस्तृत हो, जिससे तुम सांसारिक अभ्युदय को प्राप्त होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो अर्थात् जो सब का मित्र न्यायकारी कुलीन और जो डाकू चोर तथा अन्यायकारियों के दुःखों से छुड़ानेवाला हो, ऐसे राजा की प्रेमलता को अपने स्नेह से सिञ्चन करो ॥१॥
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आर्यमुनि

अधुना राजसूययज्ञो निरूप्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मोपदिशति हे अध्यापकोपदेशकौ (दिवि क्षयन्ता) द्युलोकस्य स्वामिनौ भवन्तौ (पृथिव्याम्) पृथिवीलोके (रजसः) पदार्थविद्याया वेत्तारौ भवन्तौ (प्र, वां) युवाभ्यां प्रेरिता राजानः (घृतस्य) प्रेमभावस्य (निर्णिजः) स्नेहं (ददीरन्) प्रजाभ्यः प्रयच्छन्तु, अन्यच्च (नः) अस्माकं (हव्यम्) राजसूयाख्यं यज्ञं (मित्रः) सर्वप्रियः (अर्य्यमा) न्यायकारी (सुजातः) कुलीनः (राजा) दीप्तिमान् (सुक्षत्रः) क्षात्रधर्मवित् (वरुणः) वरणीयः एवंविधा राजानः राजसूयाख्यं यज्ञं (जुषन्त) सेवन्ताम् ॥१॥