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नू मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मा न॒स्त्मने॑ तो॒काय॒ वरि॑वो दधन्तु । सु॒गा नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑नि सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū mitro varuṇo aryamā nas tmane tokāya varivo dadhantu | sugā no viśvā supathāni santu yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

नु । मि॒त्रः । वरु॑णः । अ॒र्य॒मा । नः॒ । त्मने॑ । तो॒काय॑ । वरि॑वः । द॒ध॒न्तु॒ । सु॒ऽगा । नः॒ । विश्वा॑ । सु॒ऽपथा॑नि । स॒न्तु॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.६३.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:63» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नु) निश्चय करके (मित्रः) सबका मित्र (वरुणः) वरणीय=सबका प्राप्य स्थान (अर्यमा) न्यायकारी परमात्मा (नः) हमारे (त्मने) आत्मा के (तोकाय) सुखप्राप्त्यर्थ (वरिवः) सब प्रकार का ऐश्वर्य (दधन्तु) धारण करायें अथवा अन्न धन आदि से सम्पन्न करें ताकि (विश्वा) सब (सुगा) मार्ग (नः) हमारे लिए (सुपथानि) सुमार्ग (सन्तु) हों और हे भगवन् ! (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) कल्याणयुक्त वाणियों से (नः) हमको (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना है कि हे प्रभो ! आप हमारे लिए सर्वदा=सब काल में कल्याणदायक हों और आपकी कृपा से हमको सब ऐश्वर्य तथा सुखों की प्राप्ति हो। इस मन्त्र में जो मित्र, वरुण तथा अर्यमा शब्द आये हैं, वे सब परमात्मा के नाम हैं, “शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा” ॥ यजु॰ ३६।९॥ में मित्रादि सब नाम परमात्मा के हैं ॥ कहीं मित्र, वरुण के अर्थ अध्यापक तथा उपदेशक, कहीं प्राणवायु तथा उदानवायु और कहीं परमात्मा करते हो, आपके इस भिन्नार्थ करने में क्या हेतु है? इसका उत्तर यह है कि जैसे एक ही “ब्रह्म” शब्द कहीं वेद का वाचक, कहीं प्रकृति का वाचक, कहीं अन्न का और मुख्यतया परमात्मा का वाचक है, इसी प्रकार उपर्युक्त नाम मुख्यतया ब्रह्म के प्रतिपादक हैं और गौणी वृत्ति से अध्यापक तथा उपदेशक आदि नामों में भी वर्त्तते हैं। इसी भाव को महर्षि व्यास ने “स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” ब्र० सू० २।३।५॥ में यह वर्णन किया है कि एक ही शब्द प्रकरणभेद से ब्रह्म शब्द के समान नाना अर्थों का वाचक होता है, इसलिए कोई विरोध नहीं ॥६॥ ६३ वाँ सूक्त समाप्त हुआ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) अध्यापकः (वरुणः) उपदेशकश्च (अर्यमा) न्यायकारी, विद्वान् एते सर्वे विद्वांसः (नः) अस्माकम् (त्मने) आत्मने (तोकाय) सन्तानाय च (वरिवः) धनम् “वरिव इति धननामसु पठितम्” ॥ निरु० ३।९॥ (दधन्तु) प्रयच्छन्तु (नः) अस्माकं (विश्वा) सर्वाणि (सुपथानि) मार्गाः (सुगा) सुखेन गन्तुं योग्याः (सन्तु) भवन्तु, हे अध्यापकोपदेशकगण ! (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) (नः) अस्मान् (सदा) (पात) रक्षत ॥६॥
भावार्थभाषाः - इति त्रयष्षष्टितमं सूक्तं समाप्तम्।